Book Title: Bhagavati Sutra par Vyakhyan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam

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Page 349
________________ [६९५ 1 संसार संस्थानकाल एयं प्रण ते जीवे. पडुच्च मुत्तं न तब्भवं चेवः। जइ होज्ज तब्भवं तो, अनन्तकालो न संभव ॥ .. अर्थात-यह सत्र जीवों को उसी भव के आश्रित नहीं है। अगर उसी भव के आश्रित माना जाय तो मिश्रकाल अनन्तगुणा संभव न होगा। मिश्रकाल की अनन्तगुणता में क्यों वाधा श्राएगी, इसे स्पष्ट कर देना आवश्यक है। नरक के वर्तमानकालीन नारकी अपनी आयु पूर्ण करके नरक से निकलते ही हैं और नरक की आयु असंख्यातकाल की ही है, अनन्तकाल की नहीं है । ‘ऐसी अवस्था में बारह मुहूर्त वाले अशून्यकाल की अपेक्षा मिथकाल असंख्यातगुणा सिद्ध होगा, अनन्तगुणा नहीं । अत एव नरक के जीव जब तक नरक में रहे तभी तक मिश्रकाल नहीं समझना चाहिए, वरन् नरक के जीव नरक से निकल कर दूसरी योनि में जन्म लेकर फिर नरक में आवें, तब तक का काल मिश्रकाल है। तियच योनि में दो ही संस्थानकाल हैं-अशून्यकाल और मिश्रकाल | शून्यकाल तिर्यंच योनि में नहीं है । शून्यकाल तब होता है जब उस योनि में पहले वाला एक भी जीवन रहे, मगर तिर्यंच योनि में अनन्त जीव हैं। वे सब के सब उसमें से निकल कर नहीं जाते। इसलिए तिर्यंच योनि में . शून्यकाल नहीं है। - मनुष्य योनि और देवयोनि में तीनों काल हैं। अतएव इन दोनों का वर्णन पूर्वोक्त नारकियों के वर्णन के समान ही समझना चाहिए।

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