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असंवृत अनगार
जिन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हें बुद्ध कहते हैं । तात्पर्य यह है कि चरम शरीरी मनुष्य को भावी नय की अपेक्षा से सिद्ध कह सकते हैं, लेकिन बुद्ध तभी कहेंगे जब केवल ज्ञान प्राप्त हो जाय । श्रतएव यहाँ बुद्ध होने का अर्थकेवलज्ञानी होता है ।
मूल पाठ में तीसरा पद 'मुम्बई' है, जिस जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो चुका है- जो युद्ध हो गया है- उसके सिर्फ भवोपग्राही कर्म शेष रहते हैं । जब वह भवोपग्राही कर्म को प्रतिक्षण छोड़ता है, तब 'मुक्त' कहलाता है ।
चौथा पद ' परिनिब्वाइ' है । 'भवोपग्राही' कर्म को प्रतिक्षण छोड़ने वाला वह महापुरुष कर्मपुदलों को ज्यों ज्यों क्षीण करता जाता है, त्यों-त्यों शीतल होता जाता है । इस प्रकार की शीतलता प्राप्त करना ही निर्वाण प्राप्त करना कहलाता है ।
निर्वाण के विषय में बौद्धों की मान्यता कुछ विलक्षण ही है । एक बार बुद्ध से पूछा गया -'मुक्त जीव कहाँ जाता है ?' इस प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने प्रश्न किया- 'दीपक बुझ कर कहाँ जाता है ?' जब उनसे यह कहा गया कि दीपक वुझने पर कुछ शेष नहीं रहता - दीपक शून्य रूप में परिणत हो जाता है; तब बुद्ध ने कहा - इसी प्रकार मुक्त होने पर जीव शून्य हो जाता है, कुछ भी नहीं रह जाता। मगर वास्तचिक बात यह नहीं है । किसी भी सत् वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता। जो है, वह सदा रहेगी ही । उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन तो होगा, मगर उसका सर्वथा नाश होना संभव नहीं है । दीपक का भी सर्वथा नाश नहीं हो