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-और म० बुद्ध ]
[१२३ अनादिनिधन है।' यह द्रव्योंका लीलाक्षेत्र है; जो द्रव्य अनादिसे सत्तामें विद्यमान हैं और अनन्तकाल तक वैसे ही रहेंगे । इस तरह इसलोकमें न किसी नवीन पदार्थकी सृष्टि होती है और न किसीका सर्वथा नाश होता है । केवल द्रव्योकी पर्यायोमे उलट फेर होती रहती है, जिससे लोककी एक खास अवस्थाका जन्म, अस्तित्व
और नाश होता रहता है। इस कार्यकारण सिद्धान्तमें इसप्रकार किसी एक सर्व शक्तिवान् कर्ता-हर्ताकी आवश्यक्ता नहीं है। वस्तुतः एक प्रधान व्यक्तिके ऊपर ससारका सर्वभार डालकर स्वयं निश्चिन्त हो जाना कुछ सैद्धान्तिकता प्रकट नहीं करता । ससारका रक्षक होकर संसारी जीवपर वृथा ही दुःखोके पहाड उलटना कोई भी बुद्धिवान स्वीकार नहीं करेगा। सचमुच सांसारिक कार्योको अपने जुम्मे लेकर वह ईश्वर स्वय राग और द्वेषका पिटारा बन जायगा और इस दशामे वह सांसारिक मनुष्यसे भी अधिक बन्धनोमें बंध जायगा । इस अवस्थामें ईश्वरको अनादिनिधन माननेके स्थानपर स्वयं लोकको ही अनादिनिधन मान लेनेसे यह झंझटें कुछ भी सामने नहीं आती हैं । वस्तुतः भारतीय षट्दर्शनोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेसे उनमे भी एक कर्ताहर्ता ईश्वरकी मान्यताके कहीं दर्शन नहीं होते ! ऐसा प्रतीत होता है कि यह उपरान्तके भीरु और आलसी मनुष्योकी रचना ही है जो परावलम्बी रहने में ही आनन्द मानते हैं । अस्तुः।
१. बौद्धशान ' सुमङ्गलाविलासिनी ' (P. T.S, P. 119) में जैनों की इस मान्यताका उल्लेख है. २. तत्वार्थसूत्र (S. B. J. II) पृष्ठ १२०-१२१. 3. अप्रेजी जैनगजट भाग २. पृष्ट १७ और B. R.E. Vol. II. P. 185 ff.
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