Book Title: Bhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 241
________________ - और म० बुद्ध ] [ २२७ P 'गवत्तो - जिसका मन अन्तको पहुंच गया है अर्थात् जिसने अपने उद्देश्यको पा लिया है ।" यतत्तो - जिसका मन संयमित है । थितत्तो - जिसका मन खूब थिर होगया है ।' अतएव इन भावोंको व्यक्त करनेवाले ये विशेषणोंका जैन मुनियोंकी प्रख्यातिके लिये उस समय प्रचलित होना बिल्कुल संभव है; किन्तु यह अवश्य है कि उपलब्ध जैन साहित्य में हमें इनका व्यवहार कहीं नज़र नहीं पडा है । शायद प्रयत्नशील होकर खोज करनेपर अगाध जैनसाहित्यमें इनका पता चल जावे ! इतनेपर भी यह स्पष्ट है कि जो भाव इन शब्दोंका बतलाया गया उसीके अनुसार जैनशास्त्रोंमें जैनमुनियोंका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है । देखिये ईसाकी प्रथम शताव्दिके विद्वान् कुन्दकुन्दाचार्य इस विषयमें निरूपण करते हैं: " जधजादरूवजादं उप्पाडिद केसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पाड़िकम्पं हवदि लिंगं ॥ ५ ॥ मुच्छारंभविजुत जुत्तं उवजोग जोग सुद्धीहिं । लिगं ण परावेक्षं अणभव कारणं जो एहं ॥ ६ ॥ 2 प्रवचनसार भावार्थ- 'मुनिलिंग नग्न, सिर व डाढ़ी केशरहित, शुद्ध, हिंसादि रहित, शृंगार रहित, ममता आरम्भ रहित, उपयोग व योगकी शुद्धि सहित, परद्रव्यकी अपेक्षा रहित, मोक्षका कारण होता है ।' तथापि और भी कहा है : - 'इहलोग णिरावेक्खो अप्पदिवद्धो परम्मिलोयम्मि ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287