Book Title: Bhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 285
________________ -और म० बुद्ध [२७१ इस विवेचनसे जिस निर्णयको पहुचे है उसके बलसे यह प्रकट करते हमें हर्षका अनुभव होरहा है कि (१) जैनियोंकी मान्यताओंका समर्थन विधर्मी शास्त्र भी करते है और भगवान् महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी प्रकट करते है, सो उनकी इस मान्यताकी स्वीकारता बौद्धग्रन्थ खय जो अपनी प्राचीन मान्यताके अनुसार भगवान महावीरके समकालीन म० बुद्धसे करते है, जैसे कि हम देख चुके है। विधर्मी मतप्रवर्तक द्वारा इस तरह जैन मान्यताकी पुष्टि होना कुछ कम गौरवकी बात नहीं है, (२) उक्त विवेचनसे यह भी स्पष्ट है कि जैनधर्मका अस्तित्व भगवान महावीरसे बहुत पहिलेसे चला आरहा था और उसके सिद्धांत भी भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्मके समान ही थे; (३) श्वेतावरियोकी जो यह मान्यता है कि भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्पराके मुनि वस्त्र धारण करते थे और उनके चार व्रत थे, वह वौद्ध उद्धरणोके उक्त विवेचनसे वाधित है, (४) और अन्ततः आजपर्यंत मैन सिद्धातोंका अविकतरूप और दिगम्बर जैनशास्त्रोकी प्रामाणिकता भी प्रकट है। आगामी वही सिद्धांत हमें मिलते है जो सवा दो हजार वर्ष पहिले प्रचलित बताये गये है और वह दि० जैनशास्त्रोके सर्वथा अनुकूल हैं। इस रूपमे जैन साहित्य और जैनधर्मके संवधमें एक विपक्षी मतके ग्रन्थोसे महत्व प्रगट किया हुआ मिलता है। हमको विश्वास है कि आगामी पठन-पाठनमें प्राच्यविद्यामहार्णव यथार्थताका प्रतिपादन कर इसे उपयोगी पायेंगे । ॥ इति शम्॥

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