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[ भगवान महावारपिता तथा स्त्रिय और विधुच्चोर आदि सब दीक्षा धारण कर गये थे। भगवान महावीरके चौवीस वर्ष बाद जम्बूकुमार केवलज्ञानी, हुए थे। केवलज्ञानी होकर उन्होंने अपने भव नामक शिष्यके साथ चालीस वर्षतक विहार और धर्मप्रचार किया था। जैनियोके अंतिम केवलीकी यह कथा है और विशेष प्रख्यात है। संभव है इसीको बौद्धाचार्यने किसी कारणवश अपना लिया हो। यहां जम्बूकुमारकी माता जिनदासी वाई गई है और बौद्धकथामें ऋषिदासीका उल्लेख है तथापि जिनदत्ता भिक्षुणीका | भगवान महावीरके निर्वाणोपरांत एक वीस-तीस वर्षके अन्तरालमें पटनाका आविभूत हो जाना संभवित है । इन्ही जिनदासीका नाम बौद्धाचार्यने 'जिनदत्ता' रख दिया हो और इनकी किसी शिष्याका 'ऋषिदासी' रख लिया हो तो कोई अनोखी बात नही है। अथवा यह हो सकता है कि नियोंके अंतिमकेवलीकी माताको हेय प्रकट करने के लिये उन्होने उनके नामको ऋषिदासीमें पलटकर उनके जीवनको नीची दृष्टिसे प्रगट किया हो। जो हो, इसमें संशय नहीं कि बौद्धाचार्यने इस कथाको किसी रूपमें अवश्य ही जैनधर्मसे ग्रहण किया था। संभव है कि जैनकथाग्रंथोमें
और कोई कथा उपरोक्तसे मिलती-जुलती मिल जावे यह ढूंढ़नेसे मालूम होसक्ता है। इस प्रकार थेरीगाथाके जैन उल्लेख पूर्ण होते है।
अब पाठकगण आइए, एक दृष्ठि 'थेरगाथा' पर भी डाललें। इसमें भी सबसे पहिले अभयकुमारके संबन्धमें जैन उल्लेख मिलता है। इसके विषयमे हम पहिले ही देख चुके हैं, उपरान्त एक कथा 'अज्जुन' शीर्षक की है। इसमें कहा गया है कि वह सावत्थी
१. Psalms of the Brethren. P. 30. २, पूर्व पृष्ठ ८३.