Book Title: Bhagavana Mahavira
Author(s): Chandraraj Bhandari
Publisher: Mahavir Granth Prakashan Bhanpura

View full book text
Previous | Next

Page 388
________________ भगवान् महावीर ४२२ वासना और सङ्कीर्णता के वशीभूत होकर व्यर्थ में गई का पर्वत और तिलका ताड़ बना दिया है जिसके फल स्वरूप समाज में चारों ओर भयङ्कर अशान्ति, और दरिद्रता का दौर दौरा हो रहा है । इस स्थान पर हम यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि श्वेताम्बर, दिगम्बर आदि सम्प्रदायों में कोई तात्विक महत्वपूर्ण भेद नहीं है। इनके बीच में होने वाले झगड़े भीगी को छोड़ कर छिलके के लिए लडने वाले मनुप्यो से अधिक अर्थ नहीं रखते। श्वेताम्बर और दिगम्बरबाद श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दोनों शब्द जैन समाज के गृहस्थों के साथ तो विल्कुल ही सम्बन्ध नहीं रखते । गृहस्थों में एक भी स्पष्ट चिन्ह ऐसा नहीं पाया जाता जो उनके श्वेताम्वरत्व अथवा दिगम्वरत्व को सूचित करता हो । अतएव ये दोनों शब्द गृहस्थों के लिए तो कुछ भी विशेष अर्थ नहीं रखते । इससे यह सिद्ध होता है कि चाहे जब इन शब्दों की उत्पत्ति हुई हो पर इस उत्पत्ति का मूल कारण हमारे धर्म गुरु ही थे । श्वेताम्बर और दिगम्बर सज्ञा का सम्बन्ध केवल साधुओं ही के साथ है। श्वेताम्बर सूत्र कहते हैं कि वस्र और पात्र रखना ही चाहिए। इसके सिवा निर्बल, सुकुमार और रोगियों के लिए संयम दुसाध्य है। यदि साधुओ को वस्त्र न रखने का नियम हो तो कड़कड़ाते जाड़े में असहनशील साधुओं की क्या गति हो? अग्नि सुलगा कर तापने से जीवहिंसा होती है और वख रखने में उतनी हिंसा नहीं होती। इसके सिवाय साधुओं को जङ्गल मे

Loading...

Page Navigation
1 ... 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435