________________
३८५
भगवान् महावीर में आते हैं-ये मोग कहलाते हैं, जैसे अन्न, पानो आदि। और जो पदार्थ बार बार काम में आ सकते हैं वे उपभोग कहलाते हैं जैसे-वर जेवर आदि। इस व्रत का अभिप्राय है कि इनका नियम करना, इच्छानुसार निरन्तर परिमाण करना । तृष्णा लोलुपता पर इस व्रत का कितना प्रभाव पड़ता है-इससे तृष्णा कितनी नियमित हो जाती है, सो अनुभव करने ही से मनुप्य भली प्रकार जान सकता है। मद्य, मांस, कन्दमूल आदि प्रभक्ष पदायों का त्याग भी इमी व्रत में या जाता है। शान्ति मार्ग में आगे वटने की जब मनुष्य को इच्छा होती है, तब वह इस व्रत का पालन करता है।
अतिथि सविभाग अपनी आत्मोन्नति करने के लिये गृहम्याश्रम का त्याग करने वाले मुमुक्ष 'अतिथि' कहलाते हैं। उन अतिथियों को, मुनि महात्मात्री को अन्न वस्र श्रादि चीजो का जो उनके मार्ग में बाधा न डालें, मगर उनके सयम पालन में उपकारी हो, दान देना और रहने के लिए स्थान देना इस व्रत का अभिप्राय है। साधु-सतों के अतिरिक्त उत्तम गुण-पात्र गृहस्था के प्रति भक्ति करना भी इस व्रत में सम्मिलित होता है।
इन बारह व्रतों में से प्रारम्भ के पाँच त "अणुव्रत" कहलाते हैं। इनका अभिप्राय यह है कि वे साधु के महानता के सामने 'अणु' मात्र हैं-बहुत छोटे हैं। उनके बाद तीन 'गुण व्रत' कहलाते हैं इनका मतलब यह है कि ये तीन व्रत अणुव्रतों का गुण यानी उपकार करने वाले हैं-उनको पुष्ट करने वाले हैं। अन्तिम चार 'शिक्षावत' कहलाते हैं। शिक्षाबत शब्द का अर्थ है-विशेष धार्मिक कार्य करने का अभ्यास डालना ।
२५.