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प्राचीन जैन ग्रंथ इसिभासियाइं एवं सूत्रकृतांगसूत्र और बौद्ध ग्रंथ थेरगाथा एवं सुत्तनिपात में अनेक औपनिषदिक ऋषियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख मिलता है। इसिभासियाइं में जो पैतालीस ऋषियों के उल्लेख हैं, उनमें नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, आरुणी, उद्दालक आदि औपनिषदिक ऋषियों को अर्हत् कहकर उन्हें अपनी श्रमण परम्परा को सम्बद्ध बताया गया है, इसी प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र में असितदेवल, पाराशर, रामपुत्त आदि को आचारगत विभिन्नता के बावजूद भी अपनी परम्परा से सम्मत एवं सिद्धि को प्राप्त बताया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि श्रमणधारा भारतीय चिंतन की एक व्यापक धारा रही है। जैन ग्रंथों में पांच प्रकार के श्रमणों के उल्लेख मिलते हैं- (1) निर्ग्रन्थ, (2) शाक्यपुत्रीय (बौद्ध), (3) आजीवक, (4) गैरिक और (5) तापस। तापसों एवं गैरिक (गेरुआ वस्त्रधारी संन्यासियों) को श्रमण कहना इस बात का प्रमाण है, हिन्दूधर्म में संन्यास-मार्ग का जो विकास हुआ है, वह श्रमणधारा का ही प्रभाव है। तापसों
और गैरिकों की यह परम्परा ही सम्भवतः सांख्य और योगदर्शन की जनक और उनका ही पूर्वरूप हो।
भारतीय श्रमणधारा से विकसित बौद्ध परम्परा के अस्तित्व के उल्लेख हमें वेदों एवं उपनिषदों में तो नहीं मिलते हैं, किंतु हिन्दू पुराणों में बुद्ध और बौद्ध धर्म के उल्लेख हैं। इसके विपरीत जैन आगमों में प्रचीन काल से ही बौद्धों के उल्लेख मिलने लगते हैं। जहां एक ओर पालि त्रिपिटक में निग्रंथों, आजीवकों और तापसों के उल्लेख मिलते हैं, वहीं जैन ग्रंथों में भी शाक्यपुत्रीय श्रमणों (बौद्ध श्रमणों) के उल्लेख मिलते हैं। जैन ग्रंथ इसिभासियाई में वज्जीयपुत्र, सारिपुत्र और महाकश्यप के उल्लेख उपलब्ध हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में उदकपेढालपुत्त का बौद्ध श्रमणों के साथ संवाद, बौद्धों के पंचस्कन्धवाद एवं संततिवाद की सामान्य समीक्षा भी उपलब्ध होती है। इसी प्रकार दीघनिकाय और सुत्तनिपात में बुद्ध के समकालीन छः तैर्थिकों का भी उल्लेख मिलता है, जिनमें निग्रंथ ज्ञातपुत्र (महावीर)
और मंखलि गोशालक प्रमुख हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जहां एक ओर भारतीय धर्मदर्शन सम्बंधी ग्रंथों में प्राचीनकाल से ही बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उसकी तत्त्वमीमांसा और प्रमाणमीमांसा सम्बंधी मान्यताओं के निर्देश और उनकी समीक्षा उपलब्ध होती है, वहीं दूसरी ओर बौद्ध ग्रंथों में भी अन्य धर्म-दर्शनों और उनकी मान्यताओं के उल्लेख मिलते हैं। 1. बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में बासठ मिथ्यादृष्टियों के उल्लेख मिलते हैं, वहीं जैनग्रंथों में मेरे अनुसार त्रेसठ मिथ्यादृष्टियों के उल्लेख मिलते हैं। जहां तक जैन ग्रंथों का प्रश्न है
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