Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 7
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth अर्थात् स्फटिक मणि की शिलाओं से रमणीय उस कैलाश पर्वत पर आरूढ़ होकर भगवान् ने एक हजार राजाओ के साथ यग निरोध किया और अन्त में चार अघातिया कर्मों का अन्त कर निर्मल मालाओं के धारक देवो से पूजित हो अनन्त सुख के स्थानभूत मोक्ष स्थान को प्राप्त किया। भरत और वृषभसेन आदि गणधरों ने भी कैलाश पर्वत से ही मोक्ष प्राप्त किया शैलं वृषभसेनाद्यैः कैलाशमधिरुहा सः। शेषकर्मक्षयान्मोक्षमन्ते प्राप्तः सुरैः स्तुतः।। -हरिवंशपुराण, १३६ मुनिराज भरत आयु के अन्त में वृषभसेन आदि गणधरों के साथ कैलाश पर्वत पर आरूढ़ हो गये और शेष कर्मों का क्षय करके वहीं से मोक्ष प्राप्त किया। श्री बाहुबली स्वामी को कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त हुआ। इस सम्बन्ध में आचार्य जिनसेन आदिपुराण में उल्लेख करते हैं इत्थं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतैः । कैलासमचलं प्रापत् पूतं संनिधिना गुरोः ।। ३६।२०३ अर्थात् समस्त विश्व के पदार्थों को जाननेवाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को सन्तुष्ट करते हुए पूज्य पिता भगवान् ऋषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे। अयोध्या नगरी के राजा त्रिदशंजय की रानी इन्दुरेखा थी। उनके जितशत्रु नामक पुत्र था। जितशत्रु के साथ पोदनपुर नरेश व्यानन्द की पुत्री विजया का विवाह हुआ था। द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ इन्हीं के कुलदीपक पुत्र थे। भगवान् के पितामह त्रिदशंजय ने मुनि-दीक्षा ले ली और कैलाश पर्वत से मुक्त हुए। सगर चक्रवर्ती के उत्तराधिकारी भगीरथ नरेश ने कैलाश में जाकर मुनि-दीक्षा ली और गंगा-तट पर तप करके मुक्त हुए। प्राकृत निर्वाण भक्ति में अष्टापद से निर्वाण प्राप्त करनेवाले कुछ महापुरुषों का नाम-स्मरण करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। उसमें आचार्य कहते हैं णायकुमार मुणिन्दो बाल महाबाल चेव अच्छेया। अट्ठावयगिरि-सिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ।।१५।। अर्थात् अष्टापद शिखर से व्याल, महाव्याल, अच्छेद्य, अभेद्य और नागकुमार मुनि मुक्त हुए। हरिषेण चक्रवर्ती का पुत्र हरिवाहन था। उसने कैलाश पर्वत पर दीक्षा ली और वहीं से निर्वाण प्राप्त किया। हरिवाहन दुद्धर बहु धरहु । मुनि हरिषेण अंगु तउ चरिउ ।। घातिचउक्क कम्म खऊ कियऊ। केवल णाय उदय तव हयऊ ।। निरु सचराचरु पेखिउ लोउ। पुणि तिणिजाय दियउ निरुजोउ ।। अन्त यालि सन्यास करेय । अट्ठसिद्धि गुणि हियऊ धरेउ।। सुद्ध समाधि चयेविय पाण। निरुवम सुह पत्तइ निव्वाण ।। -कवि शंकर कृत हरिषेण चरित, ७०७-७०९ (एक जीर्ण गुटकेपर-से-रचना काल १५२६) १. उत्तरपुराण, ४८/१४१ -36 143 - - Bharat ke Digamber Jain Tirth

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