Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 26
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth शताब्दी की निश्चित की गई हैं। मथुरा की यह मुद्रा मूर्ति संख्या १२ में प्रतिबिम्बित है। प्राचीन राजवंशों के काल की मिश्री स्थापत्य में कुछ ऐसी प्रतिमाएँ मिलती हैं जिनकी भुजाएँ दोनों ओर लटकी हुई हैं। यद्यपि ये मिश्री मूर्तियाँ या ग्रीक कुरों प्रायः उसी मुद्रा में मिलती हैं, किन्तु उनमें वैराग्य की वह झलक नहीं है जो सिंधुघाटी की इन खड़ी मूर्तियों या जैनों की कायोत्सर्ग प्रतिमाओं में मिलती हैं। ऋषभ का अर्थ होता है वऋषभ और वृषभ जिन ऋषभ का चिह्न है।" ___- मार्डन रिव्यु अगस्त १९३२ पृ. १५६-६० प्रो. चंद्रा के इन विचारों का समर्थन प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार भी करते हैं। वे भी सिंधुघाटी में मिली इन कायोत्सर्ग प्रतिमाओं को ऋषभदेव की मानते हैं, उन्होंने तो सील क्रमांक ४४९ पर जिनेश्वर शब्द भी पढ़ा है। (It may also be noted that incription on the Indus seal No.449 reads according to my decipherment ""Jinesh". (Indian Historical Quarterly.) Vol. VIII No.250. इसी बात का समर्थन करते हुए डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी लिखते हैं कि “फलक १२ और ११८ आकृति ७ (मार्शल कृत मोहनजोदड़ो) कायोत्सर्ग नामक योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती हैं। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है। जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर ऋषभ देवता की मूर्ति में। ऋषभ का अर्थ है बैल, जो आदिनाथ का लक्षण है। मुहर संख्या EG.H. फलक पर अंकित देव मूर्ति में एक बैल ही बना है। संभव है यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो।" । -हिन्दू सभ्यता पृ. ३९- जैन धर्म और दर्शन इसी बात की पुष्टि करते हुए प्रसिद्ध विद्वान् राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं - "मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई हैं जैसे कालान्तर में वह शिव के साथ समन्वित हो गयीं। इस दृष्टि से जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्ति युक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेद पूर्व हैं।" -संस्कृति के चार अध्याय पृ.६२ इसी संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. एम. एल. शर्मा लिखते हैं – मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज ने अपने लेख मोहन-जो-दड़ो : जैन परम्परा और प्रमाण में लिखा है- भगवान् ऋषभदेव का वर्णन वेदों में नाना सन्दर्भो में मिलता है। कई मन्त्रों में उनका नाम आया है। मोहन-जो-दड़ो (सिन्धुघाटी) में पाँच हजार वर्ष पूर्व के जो पुरावशेष मिले हैं। उनसे भी यही सिद्ध होता है कि उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म हजारों साल पुराना है। मिट्टी की जो सीलें वहाँ मिली हैं, उनमें ऋषभनाथ की नग्न योगिमूर्ति है, उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में उकेरा गया है। "मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चिह्न अंकित है वह भगवान् ऋषभदेव का है। यह चिह्न इस बात का द्योतक है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व योग साधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे। सिंधु निवासी अन्य देवताओं के साथ ऋषभदेव की पूजा करते थे।” (भारत में संस्कृति और धर्म पृ.६२) विद्वानों के अनुसार प्राचीनकाल से दो धारायें चल रही हैं। आर्हत् और बार्हत। पाणिनी ने भी दोनों का उल्लेख करते हुए दोनों में परम्परागत शाश्वत विरोध बताया है। तार्किक दृष्टि से देखें तो मूलधारा एक होती है जिससे बाद में शाखाएँ प्रशाखाएँ निकलती हैं। मुख्य धारा आर्हत् संस्कृति थी जो ऋषभदेव से प्रारम्भ हुई और उससे विशृंखल हुए लोगों ने अर्थात् जो उसका पालन नहीं कर सके उन्होंने अलग रास्ता अपनाकर विभिन्न धर्मों का प्रारम्भ किया। ऋषभदेव के पौत्र मरिची के शिष्य कपिल से सांख्य धर्म का प्रारम्भ हुआ और सांख्य धर्म ही बाद में वैदिक धर्म की आधारशिला बना। इसीलिये यदि हम किसी भी धर्म या संस्कृति के मूल स्रोत में जायें तो वहाँ हमें ऋषभ संस्कृति के ही दर्शन होगें। Hermann Jacobi का इस विषय में यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है- "The interest of Jainism to the student of Adinath Rishabhdev and Ashtapad 6 162

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