Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 28
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth Tirthankara Rishabha. The images of Rishabha were found at Malatia, Boghaz Koi and also in the monument of Isbukjur as the chief deity of the Hittite pantheon. Excavations in Soviet Armenia at Karmir-Blur near Erivan on the site of the ancient Urartian city of Teshabani have unearthed some images including one bronze statue of Rishabha" - Research In Religion आदि तीर्थंकर ऋषभदेव केवल भारतीय उपास्य देव ही नहीं भारत के बाहर भी उनका प्रभाव देखा जाता है। विश्व की प्राचीनतम संस्कृति श्रमण संस्कृति अर्हतोपासना में आस्थावान थी तथा यह उतनी ही प्राचीन है जितनी आत्मविद्या और आत्मविद्या; क्षत्रिय परम्परा रही है। पुराणों के अनुसार क्षत्रियों के पूर्वज ऋषभदेव हैं। ब्राह्मण पुराण २:१४ में पार्थिव श्रेष्ठ ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा गया है। महाभारत के शान्ति पर्व में भी लिखा है कि क्षात्र धर्म भगवान् आदिनाथ से प्रवृत्त हुआ है शेष धर्म उसके बाद प्रचलित हुए हैं। प्राचीन भारत की युद्ध पद्धति नैतिक बन्धनों से जकड़ी हुई थी। प्राचीन युद्धों में उच्च चरित्र का प्रदर्शन होता था। इतनी उच्च श्रेणी का क्षत्रिय चरित्र का उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं दीखता; इसका एक मात्र कारण ऋषभ संस्कृति का प्रभाव है। आर्यों ने यह भारत की प्राचीन श्रमण परम्परा से ही सीखा है। हिन्दू साहित्य में ब्रह्मा को अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है हिरण्यगर्भ, प्रजापति, लोकेश, नाभिज, चतुरानन, स्रष्टा और स्वयंभू आदि जिनका साम्य ऋषभदेव के चरित्र से भी मिलता है। इस प्रकार जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव प्रथम योगी थे जिन्होंने ध्यान पद्धति का प्रारम्भ किया था। श्रीमद् भागवत में उन्हें योगेश्वर कहा गया है। महाभारत में हिरण्यगर्भ को सबसे प्राचीन योगवेत्ता माना गया है। जैन परम्परा के ऋषभदेव ही अन्य परम्पराओं में आदिनाथ, हिरण्यगर्भ, ब्रह्मा एवं शिव के नाम से प्रचलित हैं। ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ को भूत-जगत् का एकमात्र स्वामी माना गया है। सायण के अनुसार हिरण्यगर्भ देहधारी था। ऋषभदेव जब गर्भ में थे तब राज्य में धनधान्य की वृद्धि हुई इसीलिये उन्हें हिरण्यगर्भ भी कहा जाता है। महापुराण में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। आगम और ऋग्वेद के व्युत्पत्ति जन्य अर्थ में अद्भुत साम्य देखने को मिलता है। जो इस प्रकार है। 'ऋ' का अर्थ है प्राप्त करना या सौंपना। 'क्' अक्षर का अर्थ है शिव, विष्णु, ब्रह्मा (सत्यम शिवम सुन्दरम) के रूप में भी मिलता है। और वेद का अर्थ है ज्ञान । अर्थात् ब्रह्मा, शिव (ऋषभदेव) से आया (प्राप्त) ज्ञान। आगम में - 'आ' का अर्थ है आया हुआ', 'अधिग्रहण' | 'ग' से गणधर। 'म' का प्रयोग ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों के सम्मिलित रूप में होता है और ऋषभदेव से गणधरों को आया हुआ रहस्यमय ज्ञान या गणधरों द्वारा ग्रहण किया गया रहस्यमय ज्ञान। संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर (रामचन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित नागरी प्रचारणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित) के पृष्ठ ८१ में आगम का अर्थ वेद, शास्त्र, तन्त्रशास्त्र और नीतिशास्त्र दिया हुआ है। इससे यह पता चलता है कि आगम साहित्य वैदिक साहित्य से भी विशाल था। "तन्त्र अभिनव विनिश्चय” (शैव आगमों का प्रमुख ग्रन्थ) में लिखा है कि तंत्र के आदि स्रष्टा शिव थे। जिन्होंने आगम के रूप में वह ज्ञान पार्वती को दिया और पार्वती ने लोक कल्याण के लिये वह ज्ञान गणधरों को निगम के रूप में दिया। यह धारणा इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि आदि एक है लेकिन विभिन्न लोगों ने अलग-अलग दृष्टिकोण से उसकी व्याख्या की है। "एकं सद्विप्रा बहुधा वदनत्यग्निम् यमः मातरिश्वानम् आहुः ।” अतः मूल ज्ञान का स्रोत आगम थे और उसी का परिवर्तित रूप निगम बना। पार्वती शब्द का अर्थ पर्वत में रहने वाले लोग से भी होता है। जिनको पारवतीय कहकर सम्बोधित किया गया है। इस रहस्यमय आगम ज्ञान को सिर्फ भारत में ही नहीं यूरोप में भी कैसे नष्ट किया गया इसका एक उदाहरण यहाँ पर दिया जा रहा है। Godfrey Higgins ने अपने ग्रन्थ "The Celtic Druids" में इस विषय में लिखा है- "After the introduction of Christianity Adinath Rishabhdev and Ashtapad 6 164

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