Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 46
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. की गयी हो या मुक्ति प्राप्त की गयी हो। वह स्थान उस विलक्षण व्यक्तित्व की चेतना की उर्जा से उक्त हो जाता है तथा वहाँ की चेतना की सघनता स्वमेव उस स्थान को तीर्थ का रूप प्रदान कर देती है। जहाँ लोग आकर दर्शन करते हैं साधना करते हैं क्योंकि वहाँ के वातावरण में तीर्थंकरों और महापुरूषों के चैतन्य के परमाणु व्याप्त होते हैं। उनकी चेतना की ज्योति का घनत्व आत्म साधक की साधना की क्षमता को शीघ्र ही बढ़ा देता है। महोपाध्याय चन्द्रप्रभजी के शब्दों में 'तीर्थ में प्रवहमान चैतन्य धारा स्वतः में प्रवहमान होने लगती है । तीर्थ हमारी निष्ठा एवं श्रद्धा के सर्वोपरि माध्यम हैं । तीर्थ ही वे माध्यम हैं जिनके द्वारा हम अतीत के आध्यात्म में झाँक सकते हैं। तीर्थ सदा से हमारे सांस्कृतिक जीवन की धुरी रहे हैं सारी की सारी नैतिक रक्त नाड़ियाँ I यहीं से होकर गुजरती हैं और हमें संस्कृति तथा धर्म के तल पर नया जीवन नयी उमंग प्रदान करती हैं। यही से हम उत्साह की मंद पड़ती लौ के लिये नयी ज्योति पाते हैं। संक्षेप में तीर्थ हमारे आत्म कला के सर्वोत्कृष्ट साधन हैं" (महोपाध्याय श्रीचन्द्रप्रभ सागरजी) प्राचीन शास्त्रों से यह पता चलता है कि तीर्थंकर की अवधारणा का विकास अरिहंत की अवधारणा से हुआ है । उत्तराध्ययन में सबसे पहले हमें तित्थयर शब्द मिलता है। तीर्थं के लिये बुद्ध शब्द का प्रयोग जैन आगमों में तथा बौद्ध पिटकों में बुद्धों का तीर्थंकर के रूप में प्रयोग मिलता है। तीर्थ स्थानों में व्यक्ति सब चिन्ताओं से मुक्त हो भावविभोर हो भक्ति में लीन हो जाता है । जि समय तक वहाँ रहता है एक विशेष सुख शान्ति का अनुभव करता है। तीर्थों की गरिमा मन्दिरों से अधिक है। जैन धर्म में २४ तीर्थंकरों की मान्यता है महाभारत और पुराणों में तीर्थ यात्रा के महत्त्व को बतलाते हुए यज्ञों की तुलना मे श्रेष्ठ बताया गया है। बौद्ध परम्परा में भी बुद्ध के जन्म, ज्ञान, धर्मचक्र प्रवर्तन और निर्वाण इन चार स्थानों को पवित्र मानकर यहाँ यात्रा करने का निर्देश मिलता है। चीनी यात्री फाह्यान ह्नुनसांग, इत्सिन आदि बौद्ध तीर्थों की यात्रा हेतु भारत आये थे । तीर्थंकरों, मुनियों, ऋषियों की चैतन्य विद्युत धारा से प्रवाहित तीर्थों में चेतना की ज्योति अखण्ड रहती है। जैन शास्त्रों में तीर्थंकरों के निर्वाण स्थल, जन्म स्थल तथा अन्य कल्याण भूमियों को तीर्थ के रूप में मान्यता दी गयी है तथा उन स्थानों पर बनाये गये चैत्यों, स्तूपों तथा वहाँ पर जाकर महोत्सव मनाने का वर्णन आगम साहित्य में उपलब्ध मिलता है । आचारांग नियुक्ति, निशीथ चूर्णी, व्यवहार चूर्णी, महनिशीथ, श्री पंचाशक प्रकरणम्, हरिभद्रसूरि सारावली प्रकीर्णक, सकल तीर्थ स्तोत्र, अष्टोत्तरी तीर्थमाला, प्रबन्धग्रन्थों तथा जिनप्रभसूरि रचित विविध तीर्थकल्प आदि ग्रन्थों में तीर्थों तीर्थ यात्री संघों द्वारा तीर्थों की यात्रा का उल्लेख मिलता है तथा उनकी महत्ता का भी वर्णन मिलता है। 3 तीर्थंकरों द्वारा स्थापित साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका का चतुर्विध संघ (तिथ्यं पुण चाउवन्ने समणसंधे, समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ - भगवती सूत्र शतक २० / उ० ८ / सूत्र ७४) भी संसार रूपी समुद्र से पार कराने वाला भाव तीर्थ कहा जाता है। इस प्रकार के चतुर्विध संघ के निर्माण का वर्णन प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर से हमें मिलता है जैन परम्परा में तीर्थ शब्द के अर्थ का ऐतिहासिक विकासक्रम देखने को मिलता है । यहाँ तीर्थ शब्द को अध्यात्मिक अर्थ प्रदान कर अध्यात्मिक साधना मार्ग को तथा उस साधना के अनुपालन करने वाले साधकों के संघ को तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। धार्मिक क्रियाओं में चतुर्विध श्री संघ की मान्यता तथा चतुर्विध श्री संघ द्वारा तीर्थयात्रा को एक धार्मिक क्रिया के रूप में मान्यता दी गयी है । 2 ऋग्वेद में तीर्थों का वर्णन नहीं है क्योंकि प्रारम्भ में वैदिक लोग मन्दिर और मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। लेकिन श्रमण संस्कृति के प्रभाव के फलस्वरूप उपनिषदों, पुराणों, महाभारत आदि में तीर्थ यात्राओं Adinath Rishabhdev and Ashtapad as 182 a

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