Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 72
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth स्थानों और मन्दिरों में अष्टापद जिनालय बने हुए हैं। कोलकत्ता के बड़ाबाजार मंदिर में अष्टापद बना हुआ है। फलौदी के मन्दिर में तथा बिहार में भागलपुर और पटना के बीच में 17 वीं शताब्दी में भगवन्त दास श्रीमाल द्वारा स्थापित तीर्थ में अष्टापद बना हुआ है। श्रेष्ठी वस्तुपाल द्वारा गिरनार पर्वत के शिखर पर अष्टापद, सम्मेतशिखर मण्डप एवं मरूदेवी प्रसाद निर्मित कराये गये। प्रबन्ध चिन्तामणि एवं वस्तुपाल चरित्र के अनुसार प्रभास पाटन में वस्तुपाल द्वारा अष्टापद प्रसाद का निर्माण कराया था। तारंगा तीर्थ में अष्टापद निर्मित किया गया है। शत्रुञ्जय तीर्थ में आदिनाथ जिनालय के बाईं तरफ सत्यपुरियावतार मन्दिर के पीछे अष्टापद जिनालय बना हुआ है। जैसलमेर के विश्वविख्यात जिनालयों में भी अष्टापद प्रसाद है जिसके ऊपर शांतिनाथ जिनालय है। अष्टापद प्रसाद के मूल गभारे में चारों ओर 7-5-7-5 - चौबीस जिनेश्वरों की प्रतिमाएँ सपरिकर हैं। हस्तिनापुर जहाँ भगवान् ऋषभदेव स्वामी का प्रथम पारणा हुआ था भव्य अष्टापद जिनालय का निर्माण कराया गया। इस प्रकार अनेकों तीर्थों और मन्दिरों में अष्टापद जिनालय निर्मित किये गये हैं। ये परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। इसी शृंखला में अमेरिका के न्यूयार्क शहर में डॉ. रजनीकान्त शाह द्वारा जैन मन्दिर निर्मित कराया गया जिसमें अष्टापद का निर्माण कराया जा रहा है। अष्टापद के ऊपर उपलब्ध साहित्य भी उन्होंने प्रकाशित किया है। इसी सन्दर्भ में जनवरी 2005 में अष्टापद पर अहमदाबाद में विद्वानों की एक संगोष्ठी भी कराई गयी। इस प्रकार जैन साहित्य में आचारांग नियुक्ति से लेकर वर्तमान युग में श्री भरत हंसराज शाह के लेखों और चित्रों में हमें अष्टापद पर मन्दिरों और स्तूपों के निर्माण का विस्तृत और सुनियोजित वर्णन मिलता है, जो परम्परा के रूप में आज भी जैन तीर्थों और मन्दिरों में जीवन्त है। जैन धर्म के प्राचीन इतिहास की महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में अष्टापद की खोज और उसकी प्रामाणिकता साहित्यिक उल्लेखों से और परम्पराओं से स्थापित हो जाती है। यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है जिससे विश्व इतिहास को केवल एक नया आयाम ही नहीं मिलेगा बल्कि मानव सभ्यता और संस्कृति के आदि स्रोत का पता चल सकेगा। यह हमारी अस्मिता की पहचान है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति की प्राचीनता का अकाट्य प्रमाण भी। Adinath Rishabhdev and Ashtapad 6208

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