Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 40
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth अंचलगच्छ पट्टावली के अनुसार इस प्राकृत तीर्थमाला के रचयिता महेन्द्र सूरि का जन्म संवत १२२८ दीक्षा १२३७ आचार्य पद १३०९ में हुआ था। वे आचार्य हेमचन्द्र के थोड़े समय बाद ही हुए। आचार्य हेमचन्द्र और महेन्द्रसूरि के लेखन का आधार आवश्यकचूर्णि था जिसमें धर्मचक्र तीर्थ की उत्पत्ति का उपर्युक्त वर्णन है। इसके अतिरिक्त प्राचीन जैन पुरातत्त्व से भी धर्मचक्र की मान्यता का समर्थन होता है। प्राचीनतम मथुरा के आयागपट्ट आदि में धर्मचक्र उत्कीर्णित है । मध्यकाल में भी इसका अच्छा प्रचार रहा। अतः अनेक पाषाण एवं धातु की जैन मूर्तियों के आसन के बीच में धर्मचक्र खुदा मिलता है। अभिधान राजेन्द्र कोष के पृष्ठ २७१५ में धर्मचक्र संबन्धी ग्रन्थों के पाठ दिये हैं । उसके अनुसार प्राचीनतम आचारांग की चूर्णि में 'तक्षशिलायां धर्मचक्र' आदि पाठ है जिसमें धर्मचक्र की स्थापना का तीर्थ तक्षशिला था, सिद्ध होता है। तीर्थकल्प में भी "तक्षशिलायां बाहुबली विनिर्मितम् धर्मचक्र" पाठ है। आवश्यक चूर्णि में तीर्थंकर के लिये धम्मचक्कवट्टी लिखा है। अतः परम्परा निःसंदेह काफी प्राचीन सिद्ध होती है। जैनेद्र सिद्धान्त कोष के भाग २ पृष्ठ ४७५ में दो श्लोक उद्धृत मिले उनमें हजार-हजार आरों वाले धर्मचक्र अलंकृत हो रहे थे। यक्षों के ऊँचे-ऊँचे मस्तक पर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत हो रहे थे। (अगरचन्द नाहटा- धर्मचक्र तीर्थ उत्पत्ति और महिमा-कुशल निर्देश) ऋषभदेव का प्रथम पारणा अक्षय तृतीया के दिन हुआ था। इसका स्पष्ट लेख आचार्य हेमचन्द्र सूरि द्वारा रचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष में मिलता है। आर्यांनार्येषु मौनेन, विहरन् भगवान्पि। संवत्सरं निराहारश्चिन्तयामासिवानिदम् ।।२३८ ।। प्रदीपा इव तैलेन, पादपा इव वारिणा। आहारेणैव वर्तन्ते, शरीराणि शरीरिणाम् ।।२३९ ।। स्वामी मनसि कृत्यैवं, भिक्षार्थं चलितस्ततः। पुरं गजपुरं प्राप, पुरमण्डलमण्डनम् ।।२४३।। दृष्ट्वा स्वामिनमायान्तं, युवराजोऽपि तत्क्षणम् । अघावत पादचारेण, पत्तीनप्यातिलंघयन् ॥२७७ ।। गृहांगणजुषो भर्तुलुंठित्वा पादपंकजे। श्रेयांसोऽमार्जयत् केशैभ्रमरभ्रमकारिभिः ।।२८०।। ईदृशं क्व मया दृष्टं, लिंगमित्यभिचिन्तयन्। विवेकशाखिनो बीजं, जातिस्मरणमाप सः।।२८३।। ततोविज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिः स तु। गृह्यतां कल्पनीयोऽयं, रस इत्यवदत् विभुम् ।।२९१ ।। प्रभुरप्यंजलीकृत्य, परिपात्रधारयत्। उत्क्ष्प्यिोत्क्षिप्य सोऽपीक्षुरसकुम्भानलोठयत् ।। राधशुक्ल तृतीयायां, दानमासीत्तदक्षयम् । पक्षियतृतीयेति, ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०१।। Adinath Rishabhdev and Ashtapad 5 176

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