Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY
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Shri Ashtapad Maha Tirth
धर्मबृवीषी धर्मज्ञ धर्मोसि वृषभ रूप धृक् । यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत।।
-भागवत १।११।२२ भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया क्योंकि वे स्वयं धर्मरूप थे। तीर्थ का प्रवर्तन किया क्योंकि वे स्वयं तीर्थंकर थे, यह सब कुछ सत्य है किन्तु उन्होंने प्रजा को संसार में जीने का उपाय भी बताया। (मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म)।
"अश्वघोष के बुद्धचरित में शिव का 'वृषध्वज' तथा 'भव' के रूप में उल्लेख हुआ है, भारतीय नाट्यशास्त्र में शिव को 'परमेश्वर' कहा गया है। उनकी 'त्रिनेत्र' 'वृषांक' तथा 'नटराज' उपाधियों की चर्चा है। वे नृत्यकला के महान् आचार्य हैं और उन्होंने ही नाट्यकला को ताण्डव दिया। वह इस समय तक महान् योगाचार्य के रूप में ख्यात हो चुके थे तथा इसमें कहा गया है कि उन्होंने ही भरतपुत्रों को सिद्धि सिखाई। अन्त में शिव के त्रिपुरध्वंस का भी उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि ब्रह्मा के आदेश से भरत ने 'त्रिपुरदाह' नामक एक डिम (रूपक का एक प्रकार) भी रचा था और भगवान् शिव के समक्ष उसका अभिनय हुआ था। जैन ग्रन्थों में वर्णित अप्सरा नीलांजना का ऋषभदेव की राज्यसभा में नृत्य का प्रसंग उपरोक्त वर्णन से समानता दर्शाता है।"
"पुराणों में शिव का पद बड़ा ही महत्त्वपूर्ण हो गया है। यहाँ वह दार्शनिकों के ब्रह्मा हैं. आत्मा हैं, असीम हैं और शाश्वत हैं। वह एक आदि पुरुष हैं, परम सत्य हैं तथा उपनिषदों एवं वेदान्त में उनकी ही महिमा का गान किया गया। बुद्धिमान और मोक्षाभिलाषी इन्हीं का ध्यान करते हैं। वह सर्व हैं, विश्वव्यापी हैं, चराचर के स्वामी हैं तथा समस्त प्राणियों में आत्मरूप से बसते हैं। वह एक स्वयंभू हैं तथा विश्व का सृजन, पालन एवं संहार करने के कारण तीन रूप धारण करते हैं। उन्हें महायोगी, तथा योगविद्या का प्रमुख माना जाता है। सौर तथा वायु पुराण में शिव की एक विशेष योगिक उपासना विधि का नाम 'माहेश्वर योग' है। इन्हें इस रूप में 'यंती', 'आत्म-संयमी ब्रह्मचारी' तथा 'ऊर्ध्वरेताः' भी कहा गया है। शिवपुराण में शिव का आदि तीर्थंकर वृषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है। प्रभासपुराण में भी ऐसा ही उल्लेख उपलब्ध होता है।"
रामायण (बालकाण्ड ४६।६ उत्तराकाण्ड) में भी शिव की हर तथा वृषभध्वज इन दो नवीन उपाधियों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में शिव को परब्रह्म, असीम, अचिंत्य, विश्वस्रष्टा, महाभूतों का एकमात्र उद्गम, नित्य और अव्यक्त आदि कहा गया है। एक स्थल पर उन्हें सांख्य के नाम से अभिहित किया गया है और अन्यत्र योगियों के परम पुरुष नाम से। वह स्वयं महायोगी हैं और आत्मा के योग तथा समस्त तपस्याओं के ज्ञाता है। एक स्थल पर लिखा है कि शिव को तप और भक्ति द्वारा ही पाया जा सकता है अनेक स्थलों पर विष्णु के लिये प्रयुक्त की गई योगेश्वर की उपाधि इस तथ्य का द्योतक है कि विष्णु की उपासना में भी योगाभ्यास का समावेश हो गया था, और कोई भी मत इसके वर्तमान महत्व की उपेक्षा नहीं कर सकता था। (महाभारत : द्रोणपर्व वनपर्व)
विमलसूरि के 'पउमचरिउं' के मंगलाचरण के प्रसंग में एक जिनेन्द्र रुद्राष्टक का उल्लेख हुआ है जिसमें भगवान् का रुद्र के रूप में स्तवन किया गया है और बताया गया है कि जिनेन्द्र रुद्र पाप रूपी अन्धकासुर के विनाशक हैं, काम, लोभ एवं मोहरूपी त्रिपुर के दाहक हैं, उनका शरीर तप रूपी भस्म से विभूषित है, संयमरूपी वृषभ पर वह आरूढ़ हैं, संसार रूपी करी (हाथी) को विदीर्ण करने वाले हैं, निर्मल बुद्धिरूपी चन्द्ररेखा से अलंकृत हैं, शुद्धभावरूपी कपाल से सम्पन्न हैं, व्रतरूपी स्थिर पर्वत (कैलाश) पर निवास करने वाले हैं, गुण-गुण रूपी मानव-मुण्डों के मालाधारी हैं, दस धर्मरूपी खट्वांग से युक्त हैं, तपःकीर्ति रूपी गौरी से मण्डित हैं, सात भय रूपी उद्दाम डमरु को बजानेवाले हैं, अर्थात् वह सर्वथा
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Adinath Rishabhdev and Ashtapad

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