Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 33
________________ जैन तीर्थंकरों में केवल ऋषभदेव की मूर्तियों के शिर पर कुटिल केशों का रूप दिखाया जाता है और वही उनका विशेष लक्षण भी माना जाता है। इसीलिये ऋषभदेव को केशरिया नाथ भी कहा जाता है। शिव के शिर पर भी जटाजूट कंधों पर लटकते केश ऋषभ और शिव की समानता को दर्शाते हैं । अतः निःसन्देह रूप से यह स्वीकार किया जा सकता है कि ऋषभदेव और शिव नाम मात्र से ही भिन्न हैं वास्तव में भिन्न नहीं हैं । इसीलिये शिव पुराण में २८ योग अवतारों में ९ वाँ अवतार ऋषभदेव को स्वीकार किया गया है। Shri Ashtapad Maha Tirth उत्तरवैदिक मान्यता के अनुसार जब गंगा आकाश से अवतीर्ण हुई तो दीर्घकाल तक शिवजी के जटाजूट में भ्रमण करती रही और उसके पश्चात् वह भूतल पर अवतरित हुई। यह एक रूपक है, जिसका वास्तविक रहस्य यह है कि जब शिव अर्थात् भगवान् ऋषभदेव को असर्वज्ञदशा में जिस स्वसवित्तिरूपी ज्ञान-गंगा की प्राप्ति हुई उसकी धारा दीर्घकाल तक उनके मस्तिष्क में प्रवाहित होती रही और उनके सर्वज्ञ होने के पश्चात् यही धारा उनकी दिव्य वाणी के मार्ग से प्रकट होकर संसार के उद्धार के लिए बाहर आई तथा इस प्रकार समस्त आर्यावर्त को पवित्र एवं आप्लावित कर दिया। जैन भौगोलिक मान्यता में गंगानदी हिमवान् पर्वत के पद्मनामक सरोवर से निकलती है वहाँ से निकलकर वह कुछ दूर तक तो उपर ही पूर्वदिशा की ओर बहती है, फिर दक्षिण की ओर मुड़कर जहाँ भूतल पर अवतीर्ण होती है, वहाँ पर नीचे गंगाकूट में एक विस्तृत चबूतरे पर आदि जिनेन्द्र वृषभनाथ की जटाजूट वाली अनेक वज्रमयी प्रतिमाएँ अवस्थित हैं, जिन पर हिमवान् पर्वत के उपर से गंगा की धारा गिरती है। विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के महान् जैन आचार्य यतिवृषभ ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति में प्रस्तुत गंगावतरण का इस प्रकार वर्णन किया है : " आदिजिणप्पडिमाओ ताओ जढ-मुउढ - सेहरिल्लाओ । पडिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तुमणा व सा पढदि ।। " अर्थात गंगाकूट के ऊपर जटारूप मुकुट से शोभित आदि जिनेन्द्र ( वृषभनाथ भगवान्) की प्रतिमाएँ हैं । प्रतीत होता है कि उन प्रतिमाओं का अभिषेक करने की अभिलाषा से ही गंगा उनके उपर गिरती है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी प्रस्तुत गंगावतरण की घटना का निम्न प्रकार चित्रण किया है: "सिरिगिहसीसट्टियंबुजकण्णियसिंहासणं जडामएलं । जिणमभिसिक्षुमणा वा ओदिण्णा मत्थए गंगा । " अर्थात् श्री देवी के गृह के शीर्ष पर स्थिति कमल की कर्णिका के उपर सिंहासन पर विराजमान जो जटारूप मुकुट वाली जिनमूर्ति है, उसका अभिषेक करने के लिए ही मानों गंगा उस मूर्ति के मस्तक पर हिमवान् पर्वत से अवतीर्ण हुई है । वैदिक परम्परा में शिव को त्रिशूलधारी बतलाया गया है तथा त्रिशूलांकित शिवमूर्तियाँ भी उपलब्ध होती हैं। जैनपरम्परा में भी अर्हन्त की मूर्तियों को रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र) के प्रतीकात्मक त्रिशूलांकित त्रिशूल से सम्पत्र दिखलाया गया है। आचार्य वीरसेन ने एक गाथा में त्रिशूलांकित अर्हन्तों को नमस्कार किया है। सिन्धु उपत्यका से प्रात्य मुद्राओं पर भी कुछ ऐसे योगियों की मूर्तियाँ अंकित हैं, कुछ मूर्तियाँ वृषभचिह्न से अंकित हैं। मूर्तियों के ये दोनों रूप महान् योगी वृषभदेव से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त खण्डगिरि की जैन गुफाओं (ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी) में तथा मथुरा के कुशाणकालीन जैन आयागपट्ट आदि में भी त्रिशूलचिह्न का उल्लेख मिलता है। डॉ. रोठ ने इस त्रिशूल चिह्न तथा मोहनजोदड़ो की मुद्राओं पर अंकित त्रिशूल में आत्यन्तिक सादृश्य दिखालाया है । 169 Adinath Rishabhdev and Ashtapad

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