Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti

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Page 8
________________ कवि और टीकाकार थे / उनकी रचना-शैली प्रौढ-पाण्डित्य से परिपूर्ण थी ।अतः उनका प्रानन्द सर्वसाधारण को प्राप्त हो, इस बात को लक्ष्य में रखकर संस्था ने प्रारम्भ से ही गुजराती और हिन्दी भाषा में अनुवाद करवाकर ग्रन्थ-प्रकाशन को प्राथमिकता दी है। इस दिशा में गत वर्ष पूज्य उपाध्यायजी महाराज के संस्कृत भाषा में रचित स्तोत्रों का हिन्दी अनुवाद करवाकर 'स्तोत्रावली' नामक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशन किया गया। इनके प्रकाशन से जहाँ भक्तजनों को भगवद्भक्ति की प्रेरणा प्राप्त हुई वहीं काव्य-कलारसिकों को उनकी उत्तम काव्यकला का प्रानन्द भी मिला। हिन्दी भाषा में अनुवाद होने से भारत के सभी प्रान्तों में उसका समान आदर हुमा और संस्था का यह कार्य सर्वत्र सम्मान को प्राप्त हुआ। ऊपर यह कहा गया है कि श्री उपाध्याय जी न केवल कवि ही थे, अपितु एक महान् टीकाकार भी थे। इस दृष्टि से उनकी साहित्यशास्त्र के एक महान् ग्रन्थ 'काव्य-प्रकाश' पर की हुई टीका की प्रति परमपूज्य, जैन साहित्य के प्रखर संशोधक, ग्रन्थ-प्रकाशक तथा आजीवन श्रुतोपासक, विद्वद्वर्य, प्रागमप्रभाकर मुनिप्रवर 'श्रीपुण्यविजयजी महाराज' ने एक अशुद्धप्राय प्रति की अत्यन्त सुन्दर अक्षरों में स्वयं अपने हाथ से प्रेस कापी तैयार की तथा वह इस संस्था के प्रेरक पूज्य मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज को सहर्ष प्रदान की / यद्यपि दुर्भाग्य से यह टीका केवल दूसरे और तीसरे उल्लास पर ही मिली और शेष उल्लासों के बारे में कुछ निर्णयात्मक रूप में कहा भी नहीं जा सकता है तथापि इन दो उल्लासों की उपलब्ध टीका को सर्वप्रथम सम्पादित कर विद्वज्जनों तक पहुंचाने का प्रार्ष-पुरुषार्थ पू० मुनि श्री यशोविजयजी महाराज ने किया / अत्यन्त परिश्रम-पूर्वक पाण्डुलिपि के आधार पर शुद्ध पाठयोजना की तथा खण्डित अंशों को यथासम्भव जोड़ने का सफल प्रयास किया, यह अत्यन्त मानन्द का धिषय था। संस्कृत-साहित्य के प्रत्येक अध्येता के लिए 'काव्यप्रकाश'. का अध्ययन अत्यावश्यक होता है और यही कारण है कि इसकी अनेक टीकाएं बनी हैं। ऐसे उत्तम ग्रन्थ की इस महत्त्वपूर्ण टीका का हिन्दी अनुवाद भी हो जाय तो अत्युत्तम हो, ऐसी भावना होने के कारण डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी के माध्यम से इसका अनुवाद करवाया गया और विद्वत्प्रवर मुनिराज श्री

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