Book Title: Arihant
Author(s): Divyaprabhashreji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

Previous | Next

Page 12
________________ अज्ञान जगत में मोक्ष और उनके मार्ग को बताने हेतु सर्वज्ञ और उनके वचनों की महत् आवश्यकता है। प्रत्येक दर्शन शास्त्र में किसी न किसी प्रकार से सर्वज्ञता और उनसे प्रकाशित आगमों की उत्पत्ति को मान्य करना ही पड़ता है। अन्तर मात्र यही है कि जैन दर्शन में सर्वज्ञता दोष-क्षय-जन्य है। वीतरागता की प्राप्ति का यही सरल और सीधा परिणाम है। राग-द्वेष-मोह-काम-क्रोध-लोभ से प्रत्येक जीव ग्रसित है। तज्जन्य दुःख से मुक्ति जीव मात्र को अभिप्रेत है। जो इसको सिद्ध करता है वही दोष-क्षय-जन्य सर्वज्ञता को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि जिनको सर्वज्ञता अभिप्रेत है उनको दोषनाश के उपाय भी अभिप्रेत होने चाहिए। अरिहंत के जीवन में सर्वज्ञता तो होती है पर साथ ही दोष-क्षय-हेतु-अविहड़ साधना भी होती है, उनकी साधना पूर्ण वीतरागता पर्यन्त होती है। पूर्ण वीतराग, बीतद्वेष और वीतमोह होने तक अविरत साधना में वे लीन ही रहते हैं। उस साधना का नाम है-रत्नत्रय की आराधना। इस साधना मार्ग पर अरिहंत स्वयं चलते हैं, दोष-क्षय को सिद्ध करते हैं, वीतराग होते हैं, और वीतराग भाव के परिणाम से अवश्य प्राप्त होने वाली सर्वज्ञता को पाते हैं। जैन मत से सर्वज्ञता आत्मा का निज स्वभाव है। आवरण रहित अवस्था जीव का अपना मौलिक स्वरूप है। प्रत्येक जीव आत्म स्वरूप से सर्वज्ञ है। परन्तु वह कर्मों के आवरण से आच्छादित है। आवरण के दूर होते ही मूल स्वभाव प्रकाशित हो उठता है और ज्ञान स्वरूप आत्मा में सकल विश्व ज्ञेय रूप में प्रतिबिम्बित हो उठता है। उसमें तीन काल और तीन लोक के सर्व पदार्थों की सर्व पर्यायें एक साथ झलक उठती हैं। ऐसा विराट इस निरावरण ज्ञान का स्वरूप है। इसे ही केवलज्ञान, पूर्णज्ञान, लोकालोक-प्रकाशकज्ञान और समस्त द्रव्य-पर्यायों को जानने वाला ज्ञान कहा जाता है। _ ऐसे पूर्ण ज्ञान का दान-प्रकाशन करने हेतु वाणी में अतिशय चाहिये। वाणी का जोश पुण्यबल है। यह विशिष्ट पुण्यबल मात्र अरिहंत केवली को ही होता है। इसी कारण अरिहंत की तुलना किसी से नहीं हो सकती है। ज्ञान स्व का हित करता है और पर के हित हेतु ज्ञान के साथ वचन प्रयोग की आवश्यकता है। परोपकार का अनन्य साधन ज्ञान के साथ वाणी का व्यापार है। इसी कारण अरिहंत विश्वोपकारक, सकल जीव रक्षक, विश्वव्यापी अहिंसा के प्रचारक, तीर्थ के स्थापक हैं। प्रतिबोध द्वारा अनेकों जीवों को दया-दान, दाक्षिण्य, ज्ञान, ध्यान, शील और समाधि के साधक बना सकते हैं। अरिहंत पद की सत्यता अरिहंत का उपदेश है और उपदेश की अनुभूति अरिहंत का जीवन है। उनका उपदेश प्रत्यक्ष से अबाधित है। जैसा विश्व है वैसा ही प्रतिबिम्ब उनके ज्ञान में झलकता है, और उनके ज्ञान में जैसा प्रतिबिम्ब झलकता है वैसे स्वरूप का वर्णन उनकी वाणी से निकलता है। पुण्यबल से उपलब्ध उनकी विभूतियाँ और [११]

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 310