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ईश्वर का निर्माण करता है, इसी आराधना भाव से प्रेरित होकर साध्वी रल ने अपनी शोध आयोजना में एक दृष्टि बिन्दु दिया है
"आराधना करने से आत्मोत्कर्ष की भावना जागृत होती है। इसमें आराध्य की इच्छा शक्ति की आवश्यकता नहीं है। किसी कार्य का कर्ता या कारण होने के लिए यह जरूरी नहीं कि उसके साथ इच्छा, बुद्धि या प्रेरणादि भी हो। निमित्त से, प्रभाव से, आश्रित रहने से, सम्पर्क में आने से, अप्राप्य की प्राप्ति और आवृत का अनावृत होना सहज हो सकता है।''(पृ. सं. ५४)
मंत्र विज्ञान के संबंध में भी एक सृजनात्मक विचार प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में प्राप्त होता है। जैन अध्यात्म विदों ने मनवंतर से त्राण करने वाले विधान को मंत्र कहा है, यहाँ पर मंत्र किसी लौकिक लाभ का हेतु नहीं होकर पारलौकिक अनुष्ठान के रूप में उपचरित है। मध्यकालीन तांत्रिक मतों एवं मंत्र यान, वज्र यान आदि बौद्ध गुह्य-मार्गियों के प्रभाव से जैन साधना इसीलिए अप्रभावित रही, क्योंकि उसने अपनी धार्मिक मंत्र प्रक्रिया को साधन केन्द्रित नहीं मानकर साधना केन्द्रित माना है। परम् परमेष्ठि नवकार-मंत्र में व्याप्त अर्हद तत्व को विश्लेषित करते हुए अनुसंधात्री का यह दृष्टिकोण सम्यक् ही है-"अ" यह वायु बीज है। वायु हल्की होने से ऊपर उठती है। यह शब्द ऊपर उठाने में सहायक होता है। "रि" यह अग्निबीज (दाहबीज) है। इसका काम है जलाना। इसे रूपान्तरित करना चाहिए। इसमें मन्त्र को हमारे भीतर गतिमान किया जाता है। (पृ. सं.. ५८) "हाँ" यह व्योम बीज है। यह आनंद का प्रतीक है। इसका काम है. विचरना, विस्तार करना। "त" वायु बीज है, इसका काम पुनः "अ" की तरह ऊपर उठाना है। (पृ. सं. ५९) : अनुभव एवं अनुभूति के बीच के सूक्ष्म अन्तराल को शब्द की झीनी चदरियाँ
ओढ़ाकर अनुसंधात्री ने एक विलक्षण. मेधा का परिचय दिया है। वास्तव में अनुभव अनुभूति का सतही व स्थूल रूप है, जबकि अनुभूति की गहराई व सूक्ष्म संवेदना है। भाव और अनुभाव के इस अन्तराल को मापदण्ड की भाषा में कहें तो अनुभव में विस्तार है, वही अनुभूति में गहराई है। अनुभव ज्ञात मन की सतह है, वही अनुभूति अज्ञात के अनंत रहस्य का एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनावरण है, अनुभव चेतना का प्रस्थान केन्द्र है, वही अनुभूति उसका चरम अधिष्ठान। इसी अवबोध को "ध्यान" शब्द से व्याख्यायित करते हुए अनुसंधात्री ने ध्यान को दिक्काल से परे निरन्तर चैतन्यशील असीम निर्बन्ध मनोदशा बताया है। ऊर्जा का संचरण विचरण जब ध्यान की गहन गूढ़ गुहा में से होता है तभी आत्म साक्षात् का अनुस्पंदन साधक कर सकता है। इसी सत्य को स्वर देता उनका यह कथन संगत ही है
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