Book Title: Apbhramsa Vyakaran
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 39
________________ . इससे यह अर्थ निकला कि कारक वही कहलाता है जिसका क्रिया के साथ सीधा संबंध हो। यदि हम कारक और विभक्ति प्रत्ययों को मिलाकर लिखें तो निम्नलिखित रूप हमारे सामने आता है। प्रथमा विभक्ति - कर्ता कारक.. द्वितीया विभक्ति कर्म कारक तृतीया विभक्ति करण कारक चतुर्थी विभक्ति सम्प्रदान कारक पंचमी विभक्ति अपादान कारक षष्ठी विभक्ति सप्तमी विभक्ति ___ अधिकरण कारक संबोधन अतः कहा जा सकता है कि व्याकरण का सैद्धान्तिक पक्ष कारक है किन्तु विभक्ति व्यवहारिक पक्ष का द्योतक है। सम्प्रेषण के लिए विभक्तियों का प्रयोग ही किया जाता है। अपभ्रंश में कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छः कारक हैं। अपभ्रंश के वैयाकरणों ने सम्बन्ध को कारक नहीं माना है और न षष्ठी विभक्ति के रूपों को ही पृथक् स्थान दिया है। षष्ठी के रूप चतुर्थी के समान ही होते हैं। छह कारकों का बोध कराने वाली विभक्तियाँ हैं। इतना होने पर भी कारक और विभक्ति में भेद है। कर्ता में सर्वदा प्रथमा और कर्म में द्वितीया विभक्ति नहीं होती है, परन्तु कर्ता में तृतीया और कर्म में प्रथमा विभक्ति भी होती है। जैसे - "रावण/रावणा/रावणु/रावणो (1/1) अपभ्रंश व्याकरण : सन्धि-समास-कारक (30) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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