Book Title: Apbhramsa Vyakaran
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 47
________________ 10. समय एवं मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे - (i) सो (1/1) पंच दिणा/दिणाइं/आदि (212) खेत्त (2/1) सिंचि/सिंचिआ/सिंचिउ/सिंचिओ (भूकृ1/1) (वह पाँच दिन तक खेत सींचता रहा)। (ii) सो (1/1) कोस/कोसा/कोसु (2/1) चलइ (वह कोस भर चलता है।) यहाँ पंच दिणाई - द्वितीया विभक्ति में रखा गया है और कोस/कोसा/कोसु भी द्वितीया विभक्ति में है। (यह प्रयोग उस समय होता है जब निरन्तरता हो; समाप्ति नहीं)। 11. दूर (नपुं.) व अंतिय (समीप) (नपुं.) तथा इनके समानार्थक शब्द द्वितीया विभक्ति में रखे जाते हैं। जैसे - (i) गामहे/गामाहे/गामहु/गामाहु (5/1) दूरं (2/1) णई/णइ (1/1) अत्थि। (गाँव से दूर नदी है।) (ii) सरिआ/सरि/सरिआहे/सरिअहे (6/1) अंतियं जई/जइ (1/1) वसइ/आदि (नदी के समीप यति बसता है।) 12. विणा के योग में द्वितीया होती है। जैसे - माया/माय (2/1) विणा सिक्खा/सिक्ख (1/1) न होइ/आदि (माता के बिना शिक्षा नहीं होती है।) 13. कभी-कभी संज्ञा शब्द की द्वितीया विभक्ति का एक वचन क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे - सो (1/1) सुहं (2/1) विहरइ/आदि (वह सुखपूर्वक रमण करता है।) अपभ्रंश व्याकरण : सन्धि-समास-कारक (38) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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