Book Title: Apbhramsa Vyakaran
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 49
________________ (i) नरिंद/नरिंदा/नरिंदु नरिंदो (1/1) कहा/कह (2/1) सुणइ/ आदि (कर्तृवाच्य) - नरिदेण/नरिदेणं/नरिंदें (3/1) कहा/ कह (1/1) सुणिज्जइ/सुणिअइ/आदि (कर्मवाच्य) (ii) नरिंदु (1/1) हसइ/आदि (कर्तृवाच्य) - नरिदेण/नरिंदेणं/ नरिंदें (3/1) हसिज्जइ/आदि (भाववाच्य) कारण व्यक्त करने वाले शब्दों में तृतीया होती है, जैसे - (i) सो (1/1) अवराहें (3/1) लुक्कइ (वह अपराध के कारण छिपता है।) (ii) तुहुँ (1/1) उजमेण (3/1) धणु (2/1) लभहि/आदि (तुम प्रयत्न के कारण धन प्राप्त करते हो।) (i) विजाए/विजए (3/1) पइट्ठा/पइ8 (1/1) होइ (विद्या के कारण प्रतिष्ठा होती है।) (iv) सो (1/1) अज्झयणें (3/1) वसइ/आदि (वह अध्ययन के कारण रहता है/बसता है।) फल प्राप्त या कार्य सिद्ध होने पर कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया होती है। (i) सो (1/1) दहहिं/दसहिं (3/2) दिणहिं/दिणेहिं (3/2) गंथु (2/1) पढिअ/आदि (उसने दस दिनों में ग्रन्थ पढ़ा।) (ii) मित्तु (1/1) तीहिं/तीहि/आदि दिणेहिं/दिणहिं (3/2) णिरोगु (1/1) होउ/आदि (मित्र तीन दिनों में निरोग हुआ।) (ii) एकें कोसें (3/1) कन्जु (1/1) होआहोउ/आदि (एक कोस पर कार्य हुआ।) अपभ्रंश व्याकरण : सन्धि-समास-कारक (40) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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