Book Title: Apbhramsa Vyakaran
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 51
________________ (ii) सो कण्णेणं (3/1) बहिरु (1/1) अस्थि (वह कान से बहरा है।) (ii) सोणेत्तें (3/1) काणु (1/1) अस्थि (वह नेत्र से काणा है।) 9. क्रियाविशेषण शब्दों में भी तृतीया का प्रयोग होता है। जैसे - नरिंदु (1/1) सुहेण (3/1) जीवइ/आदि (राजा सुखपूर्वक जीता है।) 10. कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता 11. जैसे - तेणं कालेणं, तेण समएणं (3/1)(उस काल में) (उस समय में) किं, कजो, अत्थो - इसी प्रकार प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में आवश्यक वस्तु को तृतीया में रखा जाता है। जैसे - (i) मूळे मित्तें (3/1) किं? (मूर्ख मित्र से क्या लाभ है?) (ii) ईसरहं/ईसराहं (6/2) तिणें (3/1) विकज्जो (1/1) हवइ (धनी लोगों का कार्य तिनके से भी हो जाता है।) (iii) को अत्थो (1/1) तेण पुत्तेण (3/1) जो ण विउसो (1/1) ण धम्मिओ (1/1) (उस पुत्र से क्या प्रयोजन जो न विद्वान है और न धार्मिक है।) अपभ्रंश व्याकरण : सन्धि-समास-कारक (42) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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