Book Title: Apbhramsa Vyakaran
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 46
________________ 7. 8. 9. हरी / हरि (1/1) सग्ग / सग्गा/ सग्गु (2/1 ) उववसई/ अनुवसई/अहिवसई/आवसइ / आदि । (हरी स्वर्ग में वास करता है ।) यदि हम वस का ही प्रयोग करेंगे तो 'हरी सग्गि / सग्गे (7/1) वसई' वाक्य बनेगा । यहाँ द्वितीया विभक्ति नहीं हुई है। उभओ (दोनों ओर), सव्वओ (सब ओर), धि ( धिक्कार), समया (समीप) - इनके साथ द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे - परिजणु (1/1) नरिंद/ नरिंदा / नरिंदु (2/1) उभओ / सव्वओ चिट्ठइ ( परिजन राजा के चारों ओर / दोनों ओर बैठते हैं ।) धि दुज्जण / दुज्जणा / दुज्जणु (2/1) (दुर्जन को धिक्कार), गाम/गामा /गामु (2/1) समया एक्कु तडागु (1/1) अत्थि (गाँव के समीप एक तालाब है ।) अन्तरेण (बिना) और अन्तरा (बीच में, मध्य में) के योग में . द्वितीया होती है । (i) णाण / णाणा/णाणु (2/1) अन्तरेण न सुहु ( 1/1 ) ( ज्ञान के बिना सुख नहीं है ।) (ii) गंग/ गंगा (2 / 1 ) जउणा / जउण (2/1 ) य अन्तरा पयागु (1/1) अत्थि (गंगा और यमुना के बीच में प्रयाग है ।) पडि (की ओर, की तरफ) के योग में द्वितीया होती है । जैसे माया / माय (2/1) पडि तुहुं (1/1) सनेह (2/1 ) करहि / करसि / आदि (माता की ओर तुम स्नेह रखते हो ) । Jain Education International अपभ्रंश व्याकरण: सन्धि-समास-कारक (37) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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