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में यह समवसरण केवल कुछ योजनों में सीमित है। लेकिन सावलौकिक भूगोल में, यह परमाणुओं के बेशुमार मण्डलों में संक्रान्त होता जा रहा है । जम्बुद्वीप
और अढ़ाई द्वीप को पार करता हुआ, अन्तिम लोक-समुद्रों का अतिक्रमण करता हुआ, जैसे यह ब्रह्माण्ड के छोरों तक चला गया है। कैवल्य के दर्पण से बाहर कहीं कुछ नहीं है । · · · देख रहा हूँ मैं समग्र समवसरण को, असंख्य रंगों के बेशुमार मण्डलों में । रंग-तरंगों का एक मण्डलाकार महासागर।
· · ·आर्य ऋषभ समवसरण के पुखराज प्रांगण में उतर आये हैं । और वे स्तब्ध विभोर खड़े देखते रह गये हैं :
'देखता हूँ : यह समवसरण की भूमि है। यह प्राकृतिक भूमि से एक हाय ऊँची है । उससे और एक हाथ ऊँची वह कल्प-भूमि है । जो चौकोर है, और जिसके चार आयामों में सारे सौन्दर्य और सुखभोग घनीभत हो कर समाहित हैं । चिन्मयी है इस कल्पभूमि की माटी।
इस कल्पभूमि के चतुष्कोण में, विराट् कमलाकार फैलो है समवसरण को प्रकृत भूमि । उसके केन्द्र में प्रभु की गन्धकुटी फूटने को आकुल कमल-कोरक की तरह उन्नीत है । और समवसरण का बाह्य विस्तार अपार कमल-दलों के रूप में विकासमान है। यह कमलाकार भूमि इन्द्रनील मणि की आभा से दीपित है। इसका प्रांगण बिल्लौरी दर्पणों की तरह स्वच्छ है। उसमें सब कुछ अनायास प्रतिबिम्बित है । असंख्य मनुष्य, देव, पशु, पक्षी, नाना तियंच, समवसरण में उमड़े चले रहे हैं। पर यह सीमित भूमि सब को समाये चली जा रही है। यह माँ है । __ मानांगना भूमि में मेरुओं की हारमाला की तरह खड़े हैं, आकाशगामी मानस्तम्भ । लोक के तमाम अस्तित्वों के ये मानदण्ड हैं । नीलम और हीरे के ये मानस्तम्भ मानों आकाश में से ही उत्कीर्ण हो आये हैं। इनके चारों ओर उरेहे आलयों में जिन-मुद्राएँ शिल्पित हैं। इनके आधार-कुम्भ में पृथ्वीधर शेषनाग लिपटे हैं। इनके शीर्ष पर जिनेश्वर प्रभु की चतुर-आयामी ब्रह्ममूर्ति बिराजमान है। जिसके आभावलय को दूर से देख कर ही, सारे इन्द्रों, माहेन्द्रों, चक्रवतियों, धन-कुबेरों, विजेताओं के अहंकार पानी-पानी हो जाते हैं। यह समवसरण का मानस्तंभ है, इसकी दीवारों, गवाक्षों और आलयों में त्रिलोक की सारी विभूतियाँ मणियों में तरंगित हैं । इसके समक्ष आते ही मन शान्त, वीतराग, निराकुल हो जाता है । चित्त का चांचल्य सहसा ही विराम पा जाता है । यह विश्वम्भर का मूर्तिमान आश्वासन है।
यति ऋषभ की उन्मनी चितवन बारीक से बारीक होती जा रही है। वे समवसरण के इस तमाम रचना-लौक में जाने कितने प्रतीकों और रहस्यों के संकेत पढ़ रहे हैं।
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