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• • पर इस सुवर्ण-रत्नों के इन्द्रजाल में कहाँ खो गये वे प्रभु ? कहाँ अन्तर्धान हो गये वे शुभ्र निरंजन कैवल्यनाथ ? . . केन्द्र की सर्वोपरि गन्धकुटी का अखण्ड हीरक सिंहासन अब भी सूना है । वह त्रैलोक्येश्वर की प्रतीक्षा में है। किसी भी क्षण वे प्रभु वहाँ आरोहण कर बिराजमान हो सकते हैं।
लेकिन यह समवसरण भी तो उसो अनन्त पुरुष की महिमा और सौन्दर्य का प्रकटीकरण है । इसकी सर्वप्रकाशिनी कलाओं का साक्षात्कार कर रहा हूँ। जैसे सहस्रार का महासुख-कमल ठीक मेरी आँखों आगे पंखुरी-पंखुरी खुल रहा है । हर पाँखुरी में, हजार पाँखुरी । हर रेशे में, बेशुमार रेशे। आँखों का देखना यहाँ समाप्त है । चाक्षुष सौन्दर्य का यह चूड़ान्त उत्कर्ष है।
• यह तीर्थकर का समवसरण है। यहाँ सर्व को समाधान है, निखिल को शरण है। यहाँ सकल चराचर स्वरूपस्थ और सुखी हो कर उपस्थित हैं । यहाँ सर्वकाल के सारे प्रश्नों के उत्तर अपने आप ध्वनित होते हैं। यहाँ समत्व की गोद में आश्रय पाकर प्राणि मात्र निश्चिन्त, निर्भय, निर्दद्व हो गये हैं। ___ यहाँ माहेन्द्रों और अहमिन्द्रों के स्वर्ग उतरे हैं, अपने समस्त वैभव के साथ । सौन्दर्य, कला और शिल्प की यह पराकाष्ठा है । यहाँ कला, कविता, नाट्य, शिल्प, शृंगार, प्रतिपल अपूर्व नूतन आयामों में प्रकट हो रहे हैं । यहाँ उत्पन्न और अनुत्पन्न, सम्भूत और सम्भाव्य तमाम रत्नों और पदार्थों में होड़ मची है। त्रैलोक्येश्वर के सिंहासन में जड़ित हो जाने के लिये । उनके छत्र और भामण्डल में प्रभास्वर होने के लिए । त्रिकाल और त्रिलोक के समस्त वस्तुपरिणमन का सार-सौन्दर्य यहाँ सर्वसत्ताधीश तीर्थकर-देव के समवसरण की रचना में प्रस्तुत है ।
वस्तुमात्र को जिसने अपने स्वरूप में स्वतंत्र रक्खा है, और आप जो स्वरूप में लीन हो गया है । जिसे कोई चाह नहीं, जो परम वीतराग है, आप्तकाम है। जिसे किसी चीज़ की कामना नहीं रह गयी है. उसके श्रीचरणों में अनन्तों का ऐश्वर्य यहाँ समर्पित हुआ है। कृतार्थ होने के लिये, स्वरूप में लौट आने के लिये । विशुद्ध परिणमन के इस ज्योतिर्मान दर्पण में, हर सत्ता यहाँ अपनी मूरत देखने आयी है । यह पार्थिव और दिव्य की मिलन-द्वाभा का सीमान्त है। यह धर्मचक्रेश्वर भगवान महावीर का समवसरण है ।
.. ध्यानस्थ योगी ऋषभसेन के भीतर जैसे मन्त्रोच्चार हो रहा है। और उसमे उन्मपित हो कर उनका वैक्रयिक शरीर समवसरण के आकाश में मेंडला रहा है। अपनी परिक्रमाओं में से वे देख रहे हैं । · · · पार्थिव भूगोल
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