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त्रैलोक्येश्वर का समवसरण
पापित्य श्रमण ऋषभसेन विन्ध्याचल के एक दुर्गम्य कूट पर ध्यानस्थ हैं। वे आत्मा के ग्यारहवें गुणस्थान उपशान्त-कषाव पर अटके हैं । यहाँ कषायें चेतन के गहरे विवरों में मूच्छित नागिलियों-सी शान्त पड़ी हैं। पर कभी भी मन की हवा का कोई झोंका खा कर वे कुंककार उठ सकती हैं । योगी ऋषभ का चित, बेशक इस क्षण एक महरी शान्ति में लीन है । लेकिन फिर भी उन्हें भीतर में कहीं, चैन नहीं है। जैसे यह एक नो में डूबने की शान्ति है । नशा उतरते ही छूमंतर हो जायेगी। एक सूक्ष्म कसक उन्हें भीतर के भीतर में कुरेद रही है । उपशांत कषाय की यह छदम शान्ति आखिर भंग होने को है।. . .
'तो फिर क्षपक श्रेणी पर कैसे आरूढ़ हो सकता हूँ? आत्म-ज्योति का वह शिखर, जहाँ उत्क्रान्त होने पर, योगी के शरीर और मन के कर्म-परमाणु पतसर के पत्तों की तरह आपोआप झड़ते चले जाते हैं। जहां मात्मा एक सदाबसन्त सौन्दर्य और यौवन की बीवियों में विचरने लगता है।'
महन कायोत्सर्ग में लीन योगी ऋषभ की चेतना अब नीरब-नीरव चीत्कार उठी : 'क्षपक श्रेणी · क्षपक श्रेणी · क्षपक श्रेणी। कहाँ है, कितनी दूर है मेरी अन्तर-प्रिया का वह वातायन ?' योगी की तपोवेदना सीमान्तों को बींध रही है। .. ___और असह्यता की हद पर पहुँच कर योगी ऋषभ मानो, विन्ध्याचल के उस खतरनाफ़ कूट से, सामने की अतल खन्दा में छलॉन मार गये ।
· · · और जैसे कहीं हवा में तैरते कासनी रोशनी के एक बादल ने उन्हें झेल लिया। जामुनी जाली में से छनती आत्मा को शुभ्र चाँदनी का बह लोक । शुक्लध्यान से पूर्व की वह नीली-केसरिया द्वाभा । क्षपक श्रेणी का वह प्रथम नीलाभ सोपान । योमी ऋषभ अमित उल्लास के नशे में झूमते हुए, ऊर्ध्व के ज्योतिर्वलय में, उस आहती वल्लभा को टोहने लगे । उनकी दृष्टि लोकाकाश
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