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________________ १३ में यह समवसरण केवल कुछ योजनों में सीमित है। लेकिन सावलौकिक भूगोल में, यह परमाणुओं के बेशुमार मण्डलों में संक्रान्त होता जा रहा है । जम्बुद्वीप और अढ़ाई द्वीप को पार करता हुआ, अन्तिम लोक-समुद्रों का अतिक्रमण करता हुआ, जैसे यह ब्रह्माण्ड के छोरों तक चला गया है। कैवल्य के दर्पण से बाहर कहीं कुछ नहीं है । · · · देख रहा हूँ मैं समग्र समवसरण को, असंख्य रंगों के बेशुमार मण्डलों में । रंग-तरंगों का एक मण्डलाकार महासागर। · · ·आर्य ऋषभ समवसरण के पुखराज प्रांगण में उतर आये हैं । और वे स्तब्ध विभोर खड़े देखते रह गये हैं : 'देखता हूँ : यह समवसरण की भूमि है। यह प्राकृतिक भूमि से एक हाय ऊँची है । उससे और एक हाथ ऊँची वह कल्प-भूमि है । जो चौकोर है, और जिसके चार आयामों में सारे सौन्दर्य और सुखभोग घनीभत हो कर समाहित हैं । चिन्मयी है इस कल्पभूमि की माटी। इस कल्पभूमि के चतुष्कोण में, विराट् कमलाकार फैलो है समवसरण को प्रकृत भूमि । उसके केन्द्र में प्रभु की गन्धकुटी फूटने को आकुल कमल-कोरक की तरह उन्नीत है । और समवसरण का बाह्य विस्तार अपार कमल-दलों के रूप में विकासमान है। यह कमलाकार भूमि इन्द्रनील मणि की आभा से दीपित है। इसका प्रांगण बिल्लौरी दर्पणों की तरह स्वच्छ है। उसमें सब कुछ अनायास प्रतिबिम्बित है । असंख्य मनुष्य, देव, पशु, पक्षी, नाना तियंच, समवसरण में उमड़े चले रहे हैं। पर यह सीमित भूमि सब को समाये चली जा रही है। यह माँ है । __ मानांगना भूमि में मेरुओं की हारमाला की तरह खड़े हैं, आकाशगामी मानस्तम्भ । लोक के तमाम अस्तित्वों के ये मानदण्ड हैं । नीलम और हीरे के ये मानस्तम्भ मानों आकाश में से ही उत्कीर्ण हो आये हैं। इनके चारों ओर उरेहे आलयों में जिन-मुद्राएँ शिल्पित हैं। इनके आधार-कुम्भ में पृथ्वीधर शेषनाग लिपटे हैं। इनके शीर्ष पर जिनेश्वर प्रभु की चतुर-आयामी ब्रह्ममूर्ति बिराजमान है। जिसके आभावलय को दूर से देख कर ही, सारे इन्द्रों, माहेन्द्रों, चक्रवतियों, धन-कुबेरों, विजेताओं के अहंकार पानी-पानी हो जाते हैं। यह समवसरण का मानस्तंभ है, इसकी दीवारों, गवाक्षों और आलयों में त्रिलोक की सारी विभूतियाँ मणियों में तरंगित हैं । इसके समक्ष आते ही मन शान्त, वीतराग, निराकुल हो जाता है । चित्त का चांचल्य सहसा ही विराम पा जाता है । यह विश्वम्भर का मूर्तिमान आश्वासन है। यति ऋषभ की उन्मनी चितवन बारीक से बारीक होती जा रही है। वे समवसरण के इस तमाम रचना-लौक में जाने कितने प्रतीकों और रहस्यों के संकेत पढ़ रहे हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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