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________________ • . 'मानांगना भूमि के चारों ओर जाने कितनी वीथियाँ, एक-दूसरी को काटती हुई, और भीतर, और आगे के परिप्रेक्ष्य दिखा रही हैं। और उनके बीच कहीं वह आस्थांगना भूमि है, जो पद्मराग माणिकों से जड़ी है। यहाँ पहुँचते ही सुर, असुर, मनुष्य, तिर्यच आस्था में स्थित हो कर साष्टांग प्रणिपात में नत हो जाते हैं । यहाँ पहुँचने पर घोर नकारवादी और सन्देही के चित्त में भी अनायास श्रद्धा का उदय हो जाता है । संशयात्मा यहाँ विनाश को प्राप्त हो कर, नवजन्म पाता है । यह आहती अनुगृह की वेदी है। योगी ऋषभ देख रहे हैं, दूर-दूर जाती अनेक वीथियों और परिक्रमाओं को। उनके चौराहों पर जगह-जगह जाने कितने ही रत्न-तरंगित मानस्तम्भ मेरुओं और कुलाचलों की तरह खड़े हैं । जो सारी पृथ्वियों और लोकों को एकत्र बांधे हुए हैं। श्रीदेवो के चूड़ामणि तेज से भी अधिक जाज्वल्यमान हैं ये मानस्तम्भ । इनकी पनिम पालिकाओं के मखाग्र पर तमाम पृथ्वियों की मिश्रित माटियों से बने विशाल कुम्भ हैं। जिनमें सारे ही समुद्रों और नदियों के पानी संचित हैं। जगत की हर प्यास को प्याऊ हैं, ये मानस्तम्भ । मानस्तम्भों की चारों दिशाओं में, तरल स्फटिक जैसे निर्मल मरोवर हैं। उनके उज्ज्वल पानियों में शुद्ध परिणमन की गहन सारंगी बज रही है। कमल वहाँ हंस हो गये हैं, हम वहाँ चक्रवाक हो गये हैं। चक्रवाक-मिथुन वहाँ देवमिथुन हो गये हैं । ये कल्पकाम मरोवर हैं। यहाँ हर कल्पना मूर्त होती है। यहाँ हर स्वप्न साकार होता है । यहाँ हर कामना अपने ही सम्भोग में मोक्ष पा जाती है। • फिर एक के बाद एक ये कई परकोट हैं । कहीं स्फटिक के परकोट हैं। कहीं नीलम और पुखराज के परकोट हैं। जाने कैसे-कैसे अजूबा रत्नों, पत्थरों, जलकान्त शिलाओं के परकोट हैं। सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त चट्टानों के परकोट हैं । अयस्कान्त मणियों के परकोट हैं । प्राकृत हीरक-दर्पणों के परकोट हैं। उनके भीतर नाना रंगी मणिपंजों जैसी कितनी ही नगरियाँ हैं। उनमें नदी-तड़ाग हैं, पेड़-पालो हैं, वनांगन हैं। पर्वत-पाटियाँ हैं । झरने हैं । नर-नारी हैं। क्रीड़ा-केलि हैं। कर्म-व्यापार है। हाट-बाट है । हर नगरी अपने में स्वाधीन है । पराश्रित नहीं है । लेन-देन का हिसाब नहीं है। मनचाहा दे दो, मनचाहा ले लो। परकोट के बाद परकोट हैं, सुवर्ण के,चाँदी के, ताँबे के, लोहे के, वज्र के । तन और तन के बीच परकोट है । मन और मन के बीच परकोट है। पर इन सारे परकोटों में आज झरोके खुल गये हैं। इनमें रोशनी की पच्चीकारियाँ हो गई हैं। और हर परकोट के चारों ओर निर्मल जलों की परिखाएँ हैं। वैडूर्य मणि की चट्टानों को काटती हुई, वे पारदर्श जलों से उमड़ती रहती हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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