Book Title: Anusandhan 2016 09 SrNo 70
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान-७०
चंचल तनु-धन-ज्योवन-जीवित-जुवतिजन-सुख-भोगा रे । मात-पिता-बंधन-स्वजनादिक, चंचल सवे संज्योगा रे । ठाक० ॥१६१।। कवण मात-पिता कुण बंधव, स्वजन-कुटंब-परिवार(रु) रे ।। जनमि जनमि बहू सगपण कीधां, सरण नहीं कोई ताहरु रे । ठाक० ॥१६२।। म म जांणिसिउं प्राणी! मनसीउं, पुत्र-कलत्र सुखदाई रे । . . निवड-बंधन तुं जाणे जीवन!, स्वजन-कुटंब भिण भाई रे । ठाक० ॥१६३।। सुर-सुख खीणां होवइ जीवन!, नर-सुखनी कुण वात रे । इंद्र-चंद्रादिक चवता दीसि, ए जिन-वात विख्यात रे । ठाक० ॥१६४।। धिन अहिमंता( अइमुत्ता )दिक जे मुनिवर, मोह-बंधन दूर कीधां रे । तप-संज्यम निरमल आराधी, अनंत शिव-सुख लीधां रे । ठाक० ॥१६५।। देह असुचि-मल-कृमि-कुल-मंदिर, अभ्र-पटल परि छीजइ रे । सार एतलूं जीव! देह जि मांहि, सोहन धरम करीजइ रे । ठाक० ॥१६६।। कर जोडी कुंअर एम बोलइ, मुझ मिलीओ गुरु न्यानी रे । हुं भव-भयथी बीहनो मागुं, द्यु दीख्या कल्याणी रे । ठाक० ॥१६७॥ एह वयण सुणी सुगुरु पयंपइ, वछ! एक वात सुणीजइ रे । जिण-वाणी इंणी परि बोलइ, धर्मि विलं[ब] न कीजइ रे । ठाक० ॥१६८।। श्रीगुरु-वयण सुणी इंम विनवइ, तां तुहो रहु गणधारी रे । मात-पिता तणी अनुमति लावू, जय जंपइ सुखकारी रे । ठाक० ॥१६९।।
॥ इति वइरागनी ढाल ॥
दूहा ॥ राग असावरी ॥ चरण-मनोरथ चीतवी, आवइ मात-समीप । कर जोडीनई वीनवइ, ठाकरसी कुल-दीप ॥१७०॥ चुगतिनां दुख अनुभव्यां, वार अनंत अनंत । न्यानवंत नर जु कहइ, तुहि न आवइ अंत ॥१७१।।

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