Book Title: Anusandhan 2016 09 SrNo 70
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 151
________________ १४४ अनुसन्धान-७० रजताकार होने से शुक्ति उसका आलम्बन कैसे हो सकती है ऐसी शङ्का भी युक्त नहीं; क्यों कि अङ्गुलिनिर्देश करके जिसका ज्ञान के कर्मरूप में उल्लेख किया जाता है, उसे ही ज्ञान का आलम्बन गिना जाता है, फिर उसका प्रतिभास किसी भी रूप में हो । शुक्ति के अभाव में उक्त भ्रमज्ञान भी नहीं होता, अतः शुक्ति को ही उक्त भ्रमज्ञान का आलम्बन समझना उचित है । ११. विविध सदसत्ख्यातियाँ ___शङ्करचैतन्यभारती के ख्यातिवाद में जैनों को अन्यथाख्याति की जगह सदसत्ख्याति के समर्थक दिखाए गए हैं । वहाँ साङ्ख्यों और कुमारिल भट्ट को भी इसके ही पुरस्कर्ता बताये हैं । इसका कारण यह है कि "सदसत्ख्यातिर्बाधाबाधात्" इस सूत्र की विज्ञानभिक्षु कृत व्याख्या में "सर्व वस्तु नित्य होने से स्वरूप से बाधाभाव है, और संसर्ग असत् होने से बाध है" और "रजत दुकान में स्थित रूप से सत् है, और शुक्ति में अध्यस्त रूप से असत् है" ऐसा कहने से विज्ञानभिक्षु को सदसत्ख्याति मान्य है ऐसा समझा जाता है । चूँकि विज्ञानभिक्षु एक साङ्ख्याचार्य हैं, अतः ख्यातिवाद के कर्ता ने उक्त ख्याति को साङ्ख्यदर्शन सम्मत समझकर वर्णन किया हो ऐसा लगता है । नागेश भट्ट ने अपनी ‘मञ्जूषा' में उक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए एक विलक्षण प्रकार की सदसत्ख्याति का दर्शन कराया है । उनका कहना है कि शुक्ति में जब तक रजत का दर्शन होता है और अधिष्ठानभूत शुक्ति के सत्त्व के आरोप से बुद्धि में सद्भूत रजत का बहिर्देश में सद्रूप से अवभासन होता है, तब तक अबाध है, और उत्तरकाल में बाध होने से असत्त्व प्रतीत होता है इस तरह से सदसत्ख्याति समझनी चाहिए । भाट्ट मत में अभाव अधिकरणरूप होता है । अतः शुक्तिनिष्ठ रजत का अभाव भी शुक्तिरूप ही है । फलतः असद्भूत रजत शुक्तिरूप से तो बहिर्देश में वर्तमान ही है । लेकिन रजतरूप से उसका अभाव है । वस्तुतः जैन मत की तरह ही भाट्टों ने भी अभाव (-रजताभाव) का भावान्तरस्वरूप (-शुक्तिस्वरूप) ही स्वीकृत किया है । अर्थात् रजत

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