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जुलाई-२०१६
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तत्त्व का ही बाह्य रूप से प्रतिभास मान्य है । वह तत्त्व एक ने विज्ञान माना, दूसरे ने अविद्या । एक के मत से विपरीत वासना के कारण एकरूप विज्ञान का द्वैधीभाव होकर उसकी ग्राह्य-ग्राहक भाव से प्रतीति होती है । दूसरे की दृष्टि में अविद्या की वजह से, ब्रह्म की चित्शक्ति, अविद्योपादानक रजत की प्रतीति में व्याप्त होती है । ____ द्वैतवादियों की ओर से अद्वैतवाद के विरुद्ध बहुत सारी दलीलें पेश की गई हैं । और अविद्या व ब्रह्म की नींव पे खडा किया गया अद्वैत का महल धराशायी किया गया है । इसलिए अद्वैत के सिद्धान्त पर अवलम्बित अनिर्वचनीयख्याति का भी स्वत: निरास हो जाता है । चूँकि विज्ञानवाद की आत्मख्याति से अद्वैतवाद की अनिर्वचनीयख्याति में कोई अन्तर नहीं, अत: आत्मख्याति के विरुद्ध किए गए तर्क यहाँ भी लागू होते हैं । ४. चार्वाक सम्मत अख्याति
चार्वाक का कहना है कि शुक्ति में होने वाला 'इदं रजतम्' यह भ्रमात्मक प्रत्यय किसको आलम्बन बनाता है ? । रजत को तो उसका विषय मान ही नहीं सकते, क्यों कि तब तो रजतरूप से रजत के ग्राहक उस ज्ञान को प्रमात्मक ज्ञान गिनना पडेगा, भ्रमात्मक नहीं । रजत का ज्ञान रजताभाव को भी विषय नहीं बना सकता । ज्ञान में प्रतिभासित न होनेवाली शक्ति भी रजतज्ञान का विषय नहीं हो सकती । और अन्य का अन्य आकार से ग्रहण अस्वीकार्य होने के कारण रजताकार से शुक्ति भी उस ज्ञान का विषय मानी नहीं जा सकती । इस तरह शुक्ति में रजतज्ञान का कोई आलम्बन न होने से उसे निरालम्बन मानना ही उचित है । चूँकि इस प्रत्यय में किसी भी वस्तु की ख्याति है ही नहीं, इस लिए यह अख्याति गिनी जाती है ।
विपर्यय को भी सालम्बन मानने वाले आचार्यों का कहना है कि - १. यदि विपरीत प्रत्यय निरालम्बन होता है, उसमें स्व या पर कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता, तो उसे 'रजतज्ञान, जलज्ञान' ऐसे अभिधान क्यों दिए जाते हैं ? ।