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जुलाई-२०१६
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भूस्निग्धतादि चिह्नों की अनुपलब्धि होने से भ्रमकाल में उसका सत्त्व था ऐसा कैसे मान सकते हैं ? ।
२. विद्युत् देखने वालों को, उत्तरकाल में विद्युत् की उपलब्धि न होने पर भी, पूर्वकाल में एकसमान विद्युत् की प्रतीति होने से, एक-दूसरे की समान प्रतीति के बल पर, पूर्वज्ञान में प्रामाण्यनिश्चय हो सकता है । शुक्तिस्थल में हर दर्शक को एकसमान रजत की प्रतीति तो होती नहि, कि जिसके बल पर हम वहाँ रजत का व्यक्तीभाव समझ पाएँ ।
३. ज्ञान में भासित होने वाले हर पदार्थ का उस जगह उस काल में अस्तित्व व व्यक्तीभाव होता ही है ऐसा स्वीकार, एक ही जगह एक साथ रजत और शुक्ति दोनों का व्यक्तीभाव व अस्तित्व सिद्ध करेगा, क्यों कि एक ही शुक्ति में दो भिन्न व्यक्तियों को एकसाथ 'इदं रजतम्' और 'इयं शुक्तिः' ऐसे दो ज्ञान उत्पन्न हो सकते हैं । इस तरह एकसाथ एक ही जगह दो भिन्न अर्थों का प्रादुर्भाव स्वयं साङ्ख्यमत के विरुद्ध है । ७. मीमांसक सम्मत अलौकिकख्याति
कुछ मीमांसक अविद्यमान का प्रतिभास नहीं मानते । उनका कहना है कि ज्ञान में इस प्रकार का विपर्यय ही सम्भवित नहीं कि विषय कुछ और हो, प्रतिभासित कुछ और हो । मतलब कि सभी ज्ञान परमार्थतः सत्य ही होते हैं । व्यवहार की दृष्टि से ज्ञान में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक होता है, लेकिन ज्ञानियों की दृष्टि में ऐसा विवेक ही खुद एक भ्रान्ति है ।
उनके मत से बाह्यार्थ दो तरह का होता है : १. व्यवहारसमर्थ २. व्यवहारासमर्थ । व्यवहारसमर्थ अर्थ लोकसम्मत होने से लौकिक गिना जाता है, जब कि दूसरा विकल्पबुद्धि का विषयभूत अर्थ लोकसम्मत न होने से अलौकिक समझा जाता है, जो शास्त्रविदों को सम्मत होने पर भी लोकव्यवहार में असमर्थ होता है । और इसी वजह से भ्रम का दूसरा नाम 'अलौकिकख्याति' है ।
शुक्ति में रजत का ज्ञान, जो लोकव्यवहार में भ्रान्तरूप में परिगणित हैं, उसमें लौकिक नहि, अपितु अलौकिक रजत आलम्बनभूत होता है ।