Book Title: Anusandhan 2016 09 SrNo 70
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 142
________________ जुलाई-२०१६ १३५ ८. रामानुजाचार्य आदि की विभिन्न सत्ख्यातियाँ रामानुजाचार्य आदि वेदान्ती आचार्यों के मत में, साङ्ख्यो की तरह ही, सर्वत्र सर्वदा सर्व की सत्ता होने से, ज्ञानमात्र परमार्थतः अभ्रान्त ही होता है । और व्यावहारिक भ्रमस्थल में भी वस्तुतः सत् की ही ज्ञप्ति होने से वहाँ ‘सत्ख्याति' गिनी जाती है । फिर भी व्यावहारिक भ्रान्ताभ्रान्तविवेक की सङ्गति वे इस तरह दिखाते हैं - रामानुजाचार्य - जिसे हम शुक्ति समझते हैं, उसमें वस्तुतः रजतांश भी शुक्तिकांश की तरह है ही । केवल वहाँ शुक्तिकांश का बाहुल्य होने से वह 'शक्ति' के नाम से व्यवहृत होती है । अतः शुक्ति में जब 'इदं रजतम्' प्रत्यय होता है, तब वहाँ रजतांश के होने की वजह से वह प्रत्यय यथार्थ ही है। फिर भी व्यवहार में उसे मिथ्याज्ञान इसलिए कहा जाता है कि चक्षुरादि के दोष के कारण शुक्ति में सिर्फ रजतांश का ही दर्शन हुआ और जिसका बाहुल्य था वह शुक्तिकांश अन्तर्हित ही रह गया । बाद में दोषनिवृत्ति से शुक्तिकांश का दर्शन होने पर व उसका बाहुल्य ज्ञात होने पर 'इयं शुक्तिः' प्रत्यय उत्पन्न होता है व रजतज्ञान की निवृत्ति होती है । मध्वाचार्य - शुक्ति में 'इदं रजतम्' प्रत्यय के उत्तरकाल में शुक्ति का ज्ञान होने पर, उससे बाधित होकर रजतज्ञान निवृत्त होता है और 'मुझे असत् रजत प्रतिभासित हुआ' ऐसा बोध उत्पन्न होता है । चूंकि असत् के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध सम्भवित नहीं, अतः वहाँ चक्षु का असत् रजत के साथ सम्बन्ध स्वीकृत नहि किया जा सकता । वस्तुतः वहाँ चक्षु का संसर्ग तो शुक्ति के साथ ही होता है, परन्तु इन्द्रिय दोषवशात् शुक्ति में अत्यन्त असत् रजतरूप से अवगाहन करती है । माध्वमत में असत् रजत के साथ चक्षु का सन्निकर्ष न होने से असत्ख्याति नहीं गिनी जा सकती, अपितु सद्भूत शुक्ति के साथ ही इन्द्रियसंसर्ग होने के कारण एक प्रकार की सत्ख्याति ही है, केवल इन्द्रिय का अधिष्ठान में अवगाहन असदात्मना होता है । अलबत्त, द्वैतवादी माध्वमत में सर्वदा सर्वत्र सर्व पदार्थों की

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