Book Title: Anusandhan 2016 09 SrNo 70
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 146
________________ जुलाई-२०१६ १३९ सारांश यह है कि शुक्ति में रजत के भ्रमात्मक ज्ञान को अन्य सब दार्शनिक एक ज्ञान मानते हैं, तब प्रभाकर स्वतःप्रामाण्य के सिद्धान्त की रक्षा के लिए स्वीकृत ‘सभी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं' इस सिद्धान्त के मुताबिक शुक्तिप्रत्यक्ष व रजतस्मरण - इन दो यथार्थ ज्ञानों के मिथ्या एकीकरण को भ्रम गिनते हैं । ऐसा करने से, उनकी सोच में, न तो परतःप्रामाण्य का सिद्धान्त पुरस्कृत होता है, न तो शून्यवाद को अवकाश मिलता है । पुनः शुक्तिदेश में रजत का असत्त्व ही होने से यहाँ सत्कार्यवाद भी खडा नहीं हो पाता । प्रभाकर की इस विवेकाख्याति का सभी दार्शनिकों ने प्रबल प्रतिवाद किया है । सन्मतितर्कवृत्ति में भी इसका विस्तृत खण्डन हुआ है । दार्शनिकों के द्वारा की गई अनेकानेक दलील में मुख्य ये हैं - . १. प्रभाकर ने परतःप्रामाण्यवाद और शून्यवाद के स्वीकार के भय से विपरीतख्याति का अभ्युपगम नहीं किया । लेकिन स्मृति-प्रमोष में भी स्मृति स्मृतिरूप में गृहीत न होकर अनुभवरूप में गृहीत होती है (तभी तो स्मृत रजत का इदन्त्वेन बोध होता है), तो यह विपरीतख्याति ही हुई न ? । तदुपरान्त स्मृतिप्रमोष में परतःप्रामाण्यवाद का भय भी तदवस्थ ही है । क्यों कि कालान्तर में रजतज्ञान होने पर यह आशङ्का होगी ही कि यहाँ स्मृतिप्रमोष होने से रजत का मिथ्या प्रतिभास हो रहा है या सच्चे रजत की ही अनुभूति है ? । इस आशङ्का के निराकरण के लिए संवादादि बाधकाभाव की खोज करनी ही होगी, सो परतःप्रामाण्यवाद ही आ गया, क्यों कि बाधकाभाव के निश्चय तक तो प्रामाण्यनिश्चय हो ही नहीं सकता । शून्यवाद की आपत्ति भी स्मृतिप्रमोष में बनी ही रहती है । क्यों कि शुक्तिस्थल में जायमान रजतज्ञान में जो रजताकार प्रतिभासित होता है, वह संनिहित रजत का है । और स्मृति से जो रजताकार प्रतिभासित होता है, वह असंनिहित रजत का है । अतः उस असंनिहित रजतसत्त्व का उक्त भ्रमज्ञान में कोई उपयोग नहीं है । तात्पर्यतः 'इदं रजतम्' इस भ्रमज्ञान में प्रतिभासित संनिहित रजत असत् ही हुआ । इस प्रकार ज्ञान जब

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