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अनुसन्धान-७०
शाङ्कर अद्वैत अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही परम सत् है, अतः सद्रूप से निर्वचनीय है । बाकी सब अविद्याजन्य, अविद्यारूप, मायिक होने से मिथ्या है । परम सत् ब्रह्म के अधिष्ठान पर अविद्या मायिक जगत् के रूप में अपना प्रस्तार फैलाती है । अतः ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त जगत् के समूचे ज्ञान मिथ्या ज्ञान हैं, जो कि तत्त्वज्ञानस्वरूप ब्रह्मज्ञान से बाधित होते हैं । यह अविद्या और तद्रूप जगत् के सकल पदार्थ सत्-असत् विलक्षण हैं - अनिर्वचनीय हैं। वे तत्त्वज्ञान से बाध्य होने के कारण सत् भी नहीं, अर्थक्रियाव्याप्त होने से असत् भी नहीं, सत् - असत् में परस्पर विरोध होने
की वजह से उभयरूप भी नहीं । अतः वे सदादि किसी भी रूप से निर्वचन के योग्य न होने से अनिर्वचनीय गिने जाते हैं, और उनका ज्ञान 'अनिर्वचनीयख्याति' के नाम से पहचाना जाता है । इस रीति से देखें तो ब्रह्माद्वैतवाद में ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त ज्ञानमात्र अनिर्वचनीयख्यातिं ही हैं ।
लेकिन यह हुई परम भ्रम की बात । व्यवहार में तो प्रमा-अप्रमाअन्यतरात्मक ज्ञान होते हैं । अविद्या के मूल कार्य के ज्ञान को अभ्रान्त, और एक मूल कार्य पर ही दूसरे मूल कार्य का आरोप करके होने वाला ज्ञान भ्रान्त - यह व्यावहारिक भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक है। जैसे कि शुक्ति में रजत का भ्रम होता है । वहाँ अविद्या रजत का उपादानकारण व शुक्ति उसका अधिष्ठानकारण है । हम शुक्तिरूप अधिष्ठान में अविद्याजन्य रजत का दोषवशात् आरोपण करते हैं । और अन्तःकरण की रजताकार मिथ्या वृत्ति से 'इदं रजतम्' ऐसा आरोपित ज्ञान करते हैं । यही भ्रम है । पश्चात्काल में दोष के दूर होने पर, अन्तःकरण की सम्यक् वृत्ति से होने वाले शुक्ति के ज्ञान से रजत का ज्ञान बाधित होकर निवृत्त होता है । जैसे कि पहेले बताया जा चुका है, ज्ञान से प्रतिभासित यह रजत सत्-असत्-विलक्षण होने से अनिर्वचनीय है, एवं उसकी ज्ञप्ति अनिर्वचनीयख्याति है । . वस्तुतः देखा जाय तो विज्ञानवादियों की आत्मख्याति और अद्वैतवादियों की अनिर्वचनीयख्याति में नाममात्र का भेद है । दोनों बाह्य वस्तुओ को न सत् कहना चाहते हैं, न असत् । दोनों को आन्तर अमूर्त