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अनुसन्धान-७०
कितनी प्रमाणिक है, यह सिद्ध कर पाना कठिन है । यद्यपि पूर्व में हार्नले द्वारा सम्पादित नन्दीसंघ पट्टावली में पांचवें क्रम पर कुन्दकुन्द का नाम दिया है, अन्य पट्टावलीयों में कुन्दकुन्द का नाम नहीं है। कुछ शिलालेखों मे कुन्दकुन्दान्वय का नाम मिलता है । शिलालेखों में भी उनके नाम कुन्दकुन्द या पद्मनन्दी उत्कीर्ण है । अतः इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम सहस्राब्दी में वे निश्चित हुए हैं । शिलालेखों में ईसा की सातवीं शती के बाद से कुन्दकुन्दान्वय के होने के कुछ प्रमाण उपलब्ध हैं । गृध्रपिच्छ यह नाम उनके द्वारा मयूरपिच्छ के स्थान पर गध्र के पंख की पिच्छी धारण करने से हुआ है । यही बलाकपिच्छ के सम्बन्ध में भी कथित है । और वक्रगीव उनके अत्यधिक लेखन और पठन करने से गर्दन टेडी हो जाने के कारण हुआ हो । ऐलाचार्य ऐसा उनका एक और भी नाम मिलता है । किन्तु ये तीनों विशेषण लगभग ईस्वी सन् की तेहरवीं शती से ही प्रचलन में देखे जाते है, अतः ये उनके ही विशेष नाम थे, यह सिद्ध कर पाना कठिन प्रतीत होता है । विद्वानों ने कुन्दकुन्द
और पद्मनन्दी इन दो नामों को ही प्रमाणिक माना है । किन्तु इतना निश्चित है कि वे दक्षिण भारतीय दिगम्बर परम्परा के जैनाचार्य हुए है जिन्होंने विपुल मात्रा में साहित्य की रचना की थी। गुरुपरम्परा और सम्प्रदाय ___ आचार्य कुन्दकुन्द के गुरु कौन थे, यह भी पूर्णतः एक विवादास्पद प्रश्न है । उन्होंने अपने ग्रन्थ पाहुड (प्राभृत) में अपने गुरु के रूप में भद्रबाहु का उल्लेख किया है । किन्तु भद्रबाहु नाम के भी अनेक आचार्य हुए हैं । उनके गुरु के रूप में उल्लेखित भद्रबाहु कौन से है, यह निर्णय कर पाना कठिन है । दिगम्बर विद्वानों ने दो भद्रबाहु की कल्पना की है - प्रथम भद्रबाहु जो पूर्वधर थे और भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् ई. पू. लगभग तीसरी शती में हुए हैं, वे आचार्य कुन्दकुन्द के वास्तविक गुरु नहीं हो सकते है, क्योंकि दोनों में काल का लम्बा अन्तराल है । दिगम्बर विद्वानोंने दूसरे भद्रबाहु की कल्पना ईसा की दूसरी शती में होनेकी की