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अनुसन्धान-७०
तत्त्वबोधप्रवेशिका - २ ख्यातिवाद ,
_ - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
[जैसा कि इस लेखश्रेणी के प्रथम चरण में निवेदित है, श्रीसिद्धसेन दिवाकर रचित सन्मतितर्कप्रकरण पर न्यायपञ्चानन श्रीअभयदेवसूरिजी प्रणीत 'तत्त्वबोधविधायिनी' वृत्ति में निविष्ट दुरूह और सुविस्तृत चर्चाओं में से कुछएक अतिमहत्त्वपूर्ण चर्चाओं को सरल शैली और सङ् क्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने का . यह एक प्रयास है । थोडे बहुत तुलनात्मक सन्दर्भो से मण्डित ऐसी प्रस्तुति विद्यार्थीओं के लिए प्रारम्भिक स्तर पर काफी उपयुक्त और रसप्रद हो सकती है ऐसी अनुभवपुष्ट भावना इस प्रयास से जुडी हुई है ।
श्रेणी का प्रथम लेख लेखक की मातृभाषा गुजराती में प्रकाशित था । लेख को देखकर गुरुजनों का सूचन हुआ कि ऐसा प्रयास यदि राष्ट्रभाषा में किया जाय तो अ-गुजराती लोग भी इससे लाभान्वित हो सके । लेखक द्वारा उस सूचन को आदेश समझकर शिरोधार्य किया गया है।
प्रथम लेख वृत्ति में प्रथमत: चर्चित प्रामाण्यवाद से सम्बन्धित था । वृत्ति में उसके बाद प्रेरणाबुद्धि का अप्रामाण्य, ज्ञातृव्यापार की असिद्धि, अभावप्रमाण की अनावश्यकता ऐसी मीमांसा दर्शन से जुडी हुई छोटी-बडी चर्चाए हैं । उसी में प्रसङ्गवशात् प्राभाकर-सम्मत स्मृतिप्रमोष का खण्डन है । यह स्मृतिप्रमोष भ्रमज्ञान की जनक एक प्रक्रिया है । भ्रमज्ञान की उत्पत्ति के विषय में ऐसी बहुत सारी प्रक्रियाओं का विभिन्न दार्शनिकों द्वारा निरूपण हुआ है, जो अलग-अलग ‘ख्याति' के नाम से पहचानी जाती हैं । दार्शनिक जगत में भ्रमज्ञान की जनक इन प्रक्रियाओं की चर्चा 'ख्यातिवाद' कहलाती है । इस बार इस विषय पर विमर्श प्रस्तुत है ।] ____ अप्रमाणभूत ज्ञान तीन प्रकार का हो सकता है : १. संशय २. अनध्यवसाय ३. विपर्यय । इनमें से तीसरे प्रकार का अप्रमाणात्मक ज्ञान, जो 'विपर्यय, मिथ्याज्ञान, अतत्त्वज्ञान, भ्रम, भ्रान्ति, विभ्रम, व्यभिचारिज्ञान, ज्ञानाभास' इत्यादि अनेक अभिधाओं से व्यञ्जित किया जाता है, वह भी दो तरीके का हो सकता है - १. पारमाथिक या परम भ्रम २. व्यावहारिक भ्रम ।