Book Title: Anusandhan 2016 05 SrNo 69
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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मार्च - २०१६
१५३
माने छे. जो के आमां अपवाद छे खरा, पण बहु जूज.
मूळभूत रीते आ चर्चा ईश्वरनी सिद्धिना मुद्दा पर निर्भर हती, अने तेमां पण शब्दप्रमाण पूरती ज सीमित हती. नैयायिको ईश्वरनी सिद्धि माटे ज उत्पत्ति अने ज्ञप्ति - बन्नेमां परत:-प्रामाण्य स्वीकारता हता.२ तेओ ओम कहेता हता के वक्तृगत यथार्थ-ज्ञानात्मक गुणने लीधे ज, तेना द्वारा प्रयोजाता वाक्यथी जन्य बोधमां प्रामाण्य आवे छे, स्वाभाविक रीते नहि. मतलब के श्रोताने थतो वाक्यजन्य बोध जो प्रमात्मक होय, तो ए बोधमां प्रामाण्यना जनक तरीके वाक्यनी प्रयोजक व्यक्तिमां यथार्थज्ञाननो स्वीकार करवो ज जोई); अन्यथा व्यक्तिमा रहेला अयथार्थज्ञानात्मक दोषने लीधे, तेना द्वारा प्रयुक्त वाक्यथी जन्य बोध भ्रमात्मक बनी शके छे. आम वाक्य पोते प्रमा-अप्रमा उभयात्मक बोधनुं कारण होवा छतां, ओक बोधमां प्रामाण्य के अप्रामाण्यमांथी अेक ज जन्मे छे, ते वक्तृगत गुण के दोषने लीधे. हवे जो वेदथी जन्य बोध प्रमात्मक होय, तो ओ प्रामाण्यना जनक तरीके यथार्थज्ञानात्मक गुणनो स्वीकार करवो ज जोइओ. अने ओ सर्वव्यापी यथार्थज्ञान ईश्वर सिवाय कोईमां सम्भवे नंहि, तेथी ओ यथार्थज्ञानना आश्रय तरीके ईश्वर सिद्ध थाय छे.
ओ ज़ रीते वाक्यजन्य बोधमां रहेला प्रामाण्यनुं ग्रहण पण 'आ वाक्य यथार्थज्ञान धरावता आप्तपुरुष द्वारा प्रयुक्त होवाने लीधे प्रमाणभूत छे' ओवी विचारणाने सापेक्षपणे थतुं होय छे. तेथी वेदजन्य बोधमां पण प्रामाण्यनो स्वीकार, यथार्थज्ञान धरावता आप्तपुरुष द्वारा प्रयुक्तत्वनो निश्चय करीने ज करी शकाय. अने ओ रीते वेदना रचयिता यथार्थज्ञानी आप्तपुरुष तरीके पण ईश्वर सिद्ध थाय छे.
आम प्रारम्भमां तो नैयायिकोना मते ईश्वरसिद्धि माटे शब्दप्रमाणमां ज १. जेम के जैनमते उत्पत्तिमों 'परतः' पक्षनो ज स्वीकार होवा छतां, ज्ञप्तिमां कथञ्चित्
स्वत: पक्षनो पण आदर छे. .. २. "न्याये चेश्वरसिद्ध्यर्थमेव प्रामाण्यस्य परतस्त्वादरः । तत्र प्रमायाः परतस्त्वेन गुणजन्यत्व
सिद्धौ, वेदप्रभवप्रमायामपि गुणजन्यत्वसिद्धिः । गुणश्च तत्र प्रयोगहेतुभूतयथार्थज्ञानवत्त्वमिति तदाश्रयतयेश्वरः सिद्ध्यति । एवं प्रमात्वग्रहस्य परतस्त्वे, वेदजप्रमायाः प्रामाण्यमप्याप्तोक्तवाक्यजन्यत्वेन ग्राह्यमित्याप्तयेश्वरः सिद्ध्यति ।" - सन्मतितर्कवृत्ति-विवरण (श्रीविजयनेमिसूरिजी, अप्रगट)

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