Book Title: Anusandhan 2016 05 SrNo 69
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 173
________________ १६६ अनुसन्धान-६९ बौद्धोने परतः प्रामाण्यना, पक्षधर तरीके रजू कर्या छे; नैयायिकोने आ चर्चामां स्थान नथी आप्यु. तेथी खण्डन-मण्डन बौद्ध परिपाटी अने सिद्धान्तोने अनुलक्षीने छे.' वळी तेमां पण आचार्यने पोताने तो'कथञ्चित् पक्ष ज सम्मत छे. तेथी तेनी पुष्टि थाय ते हेतुथी तेओओ अकान्ते स्वतःप्रामाण्यवादी अने ओकान्ते परतःप्रामाण्यवादीओनी चर्चा योजीने परस्पर खण्डम-मण्डन करावीने बन्ने पक्षोने दोषित देखाड्या छे. अलबत्त, वृत्तिमां तो प्रथम स्वत: पक्षनुं मण्डन अने त्यारबाद परतः पक्ष द्वारा तेनुं खण्डन ज देखाडायुं छे, पण गम्भीरताथी विचारीओ तो परतः पक्षना अन्तिम समर्थननो पुनः स्वतः पक्षनी दलीलो द्वारा खण्डन थवानो सम्भव छे. तेथी आ चक्रकनो अन्त जैन दर्शन सम्मत कथञ्चित् पक्ष द्वारा ज थई शके, अने तेथी ते ज विद्वज्जनो माटे उपादेय छे, ओ सूचववानो आचार्यश्रीनो आशय जणाय छे. २. जे ते दर्शनने सम्मत तमाम प्रमाणोमां स्वसम्मत स्वतः के परतः पक्ष लागु पडतो होय छे. परन्तु प्रामाण्यवादनी चर्चा तो प्रत्यक्षप्रमाणमां ज केन्द्रित थती होय छे. केमके प्रत्यक्षप्रमाण सर्व दर्शनोने सम्मत छे. वळी तेमां सूक्ष्मता अने विशदताथी आ चर्चा करी शकाय छे - समजी शकाय छे. अने अमां थती चर्चाथी साबित थतो पक्ष पछीथी तमाम प्रमाणोमा लागु पाडी शकाय छे.३ तेथी अत्रे पण प्रत्यक्षप्रमाणने ज केन्द्रमा राखीने चर्चा थई छे. ओक वात ओ पण स्पष्ट करवानी के मूळ ग्रन्थमां सौप्रथम स्वत:प्रामाण्यवादी मीमांसको तरफथी क्रमशः प्रामाण्यनी उत्पत्ति, ज्ञप्ति अने कार्यमा १. "अन्तराऽन्तरा बौद्धोपादानं तन्मतावलम्बनेनैव परतःप्रामाण्यावस्थापनं प्रस्तुतमित्येतद् __द्रढीकर्तुम् ।" - सन्मति०-वृत्तिविवरणम् (-श्रीविजयनेमिसूरिः) । २. "कथञ्चित्-स्वतःप्रामाण्यं व्यवस्थापयितुमेकान्तेन स्वतःप्रामाण्यवादिनं परतःप्रामाण्यवादिनं चाऽन्योन्यं सुन्दोपसुन्दन्यायेन वादसमिताववस्कन्दयितुमवतारयति।" - सन्मति०वृत्तिविवरणम् "यद्यपि प्रमामात्रस्यैव प्रामाण्यमुत्पत्तौ स्वतः परतो वेति विचार्यते । तत्र प्रत्यक्षप्रमाणमधिकृत्य गुणसाधन-तद्वाधनप्रकारो नाऽतिसामञ्जस्यमञ्चति । ....तथापि शिष्यबुद्धिसौकर्याय प्रत्यक्षादिप्रामाण्यविशेषमाश्रित्य तद्विचार आदृतः । विशेषे स्वतस्त्वपरतस्त्वान्यतरसिद्धौ, तन्न्यायेन सामान्येऽपि तदुपसंहारः कर्तुं शक्य इत्यभिप्रायः सूरेरिति बोध्यम् ।" - सन्मति वृत्तिविवरणम् ४. कार्य पक्षमां स्वतस्त्व-परतस्त्वनी चर्चा भूमिकामां नथी करी. ते हवे आवशे.

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