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मार्च - २०१६
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क्योंकि अधिक हस्तप्रत निकली और काम बढता रहा । पर कनुभाई एवं कल्पनाबेन सेठ की सहयोगता से हम Catalogue पूरा कर पाए । इसी प्रकार युरोप में विशेषत: England में रखी हुई हस्तप्रतों की सूचियाँ को तैयार करने में मैंने भाग लिया । यह अच्छी बात है । पर यह भी जानने लायक है कि भारत से यह सारी हस्तप्रत परदेश तक कैसे आ पहुची । बहुत लोग जानते हैं कि १९ शताब्दी के अन्त में जर्मन, ब्रिटिश, फ्रेन्च विद्वानों ने संस्कृतप्राकृत हस्तप्रतों की खोज में थे। परन्तु जैन ग्रन्थ पाने के लिये उन विद्वानों को भारतीय पण्डितों या जैन लोगों की सहायता की आवश्यकता थी । ये ही थे जो भण्डार रखनेवालों से परिचित थे और उन लोगों के साथ देशी भाषा में बात कर सकते थे । मेरा यह एक शोध-विषय हो गया है कि ये भारतीय प्रतिनिधि (intermediate) कौन थे । भगवानदास केवलदास सूरत रहनेवाली एक ऐसी व्यक्ति थी जिसने युरोप के अलग-अलग देशों की लाइब्रेरिस को बढ़ाने के लिये लगभग ३० साल के लिये बड़ा सहयोग दिया। कर्नाटक में रहनेवाले ब्रह्मसूरि शास्त्री एक और व्यक्ति थी जिन्होंने दिगम्बर हस्तप्रतों को प्राप्त करने में युरोप के विद्वानों को बड़ी सहायता दे दी । उन व्यक्तियों को अपनी संस्कृति में गम्भीर रुचि एवं जानकारी थी, उनके बिना कुछ नहीं हो पाता । इसीलिये मुझे लगता है कि वे बेनाम नहीं रहने चाहिए। हमको उनके जीवनचरित्र परिचित करने चाहिए।
जैन कथा साहित्य अद्वितीय भण्डार है । मैं मध्यकालीन दानकथाओं से आगमिक कथा परम्परा तक चली गयी । मैंने विशेषकर आवश्यक नियुक्ति एवं चूर्णि में उपलब्ध कथाओं पर ध्यान दिया । नियुक्तियों के पारिभाषिक शब्दों को समझाने का प्रयत्न किया । कभी कभी कहा जाता है कि नियुक्ति कुछ अजीब होती हैं क्योंकि इन में सब तरह की वस्तु मिलती है । पर मुझे लगता है कि नियुक्तियाँ की रीति-पद्धति न्याय एवं तर्कपूर्ण होती हैं। निरुक्ति, निक्षेप तथा एकार्थ द्वारा मूल सिद्धान्त और मूल शब्दों के अर्थ पूरे निकल जाते हैं । दसवेयालियसुत्त के स-भिक्खू के नाम से प्रसिद्ध दसवे अध्ययन में भिक्खु शब्द के साथ ऐसा होता है। नियुक्तिकार हमको समझाते है कि द्रव्य-भिक्खु एवं भाव-भिक्खु क्या होते हैं । आजकल प्राकृत भाषा के महत्त्व को रेखांकित करने के लिये मेरे दो project चल रहे हैं। एक