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अनुसन्धान-६९
५. अनियमित - आ मतना समर्थक नव्य बौद्धदर्शन अने आहेत मत छे. जो के आ बन्नेनो स्वीकार तद्दन सरखो नथी. क्रमशः -
प्राचीन बौद्धमतनुं निरूपण आपणे जोई गयां छीओ.' पाछळथी बौद्धोओ प्रामाण्य-अप्रामाण्य-ग्रहण अङ्गेना उपरोक्त चारे पक्षोनो त्याग करीने प्रामाण्यअप्रामाण्य बन्ने क्यांक स्वतः ग्रहण अने क्यांक परतः ग्रहण स्वीकार्यु.
___ बौद्धाचार्य शान्तरक्षितनी तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका-श्लोक २८१०-११मां पूर्वोक्त ४ भेद दर्शावीने तेनुं निरसन करायुं छे. आ मतनुं विवरण करतां तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका - श्लोक ३१२२नी टीकामां आचार्य कमलशील जणावे छे के "बौद्धोने अनियम पक्ष इष्ट होवाथी आ चारमाथी ओक पण पक्ष स्वीकार्य नथी. वास्तवमां प्रामाण्य-अप्रामाण्य बन्ने क्यांक स्वतः अने क्यांक परतः गृहीत थाय छे."२ आमां जो के क्यां स्वतः अने क्यां परतः तेनी स्पष्टता नथी. पण सन्मतितर्कवृत्तिमा बौद्धमत-सम्मत प्रामाण्यनी ज्ञप्तिमां परतस्त्वना निरूपणमां क्यां क्यां स्वतस्त्व पण सम्भवे ते सूचवायुं छे.. जो के बौद्धो द्वारा आ मतना स्वीकार पाछळ आहेत मतनो प्रभाव जोई शकाय छे.
आर्हत दर्शन अनुसार प्रामाण्य अने अप्रामाण्य उत्पत्तिमां तो परतः (- कारणगत गुण अने दोषथी सापेक्षपणे उत्पन्न थनारां) ज होय छे, परन्तु ज्ञप्तिमां, अभ्यासदशामां स्वतः गृहीत थई शके छे, ज्यारे अनभ्यासदशामां अमना ज्ञान माटे परनी अपेक्षा राखवी पडे छे.४
आ मत अनुसार प्रामाण्यनिश्चय ज प्रवृत्तिनो जनक बने अवो एकान्त नथी. अनभ्यासदशामां प्रामाण्यसन्देहथी पण प्रवृत्ति थई ज शके छे,५ अने १. पृ. १६० २. "न हि बौद्धरेषां चतुर्णामेकतमोऽपि पक्षोऽभीष्टः, अनियमपक्षस्येष्टत्वात् । तथाहि -
उभयमप्येतत् किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति ।" ३. जुओ पृ. १७३ परि० २ ४. "तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्च ।" - प्रमाणनयतत्त्वालोक-१.२१.
आनुं विवरण - "ज्ञानस्य प्रामाण्यमप्रामाण्यं च द्वितयमपि ज्ञानकारणगतगुण-दोषरूपं परमपेक्ष्योत्पद्यते । निश्चीयते त्वभ्यासदशायां स्वतोऽनभ्यासदशायां तु परतः ।"
- स्याद्वादरत्नाकरः ५. "न खलु सर्वत्र प्रवर्तकज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चये सति प्रवृत्तिरिति न: पक्षः । किन्तर्हि ?
अनभ्यासदशायां प्रामाण्यसन्देहादपि प्रवृत्तिरिति ।" - स्याद्वादरत्नाकरः - १.२१