Book Title: Anusandhan 2016 05 SrNo 69
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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मार्च - २०१६
१५९
आश्रयना ग्राहक ज्ञानथी ग्राह्य थq ओ स्वतःज्ञप्ति खरी, पण ओ क्यारे ? 'दोष न होय तो'. हवे संशय तो दोष होय तो ज थाय. तो, प्रामाण्य अंगे संशय थाय ओनो मतलब ओ ज छे के त्यां दोषोनुं अस्तित्व छे ज. तो त्यां स्वतःज्ञप्ति माटेनी शरत पूरी थती ज नथी. माटे उपर कहेली आपत्ति आववानो प्रश्न ज ऊभो थतो नथी.
हवे स्वतःप्रामाण्यवादीओना मते प्रामाण्यग्रहणनी प्रक्रिया कई रीते घटे छे ते जोईओ. तेमां प्रभाकर गुरु, मुरारि मिश्र अने कुमारिल भट्ट - ओ त्रणे मीमांसकोनी प्रक्रिया प्रस्थानभेदे जुदी जुदी छे. वळी वेदान्तदर्शननी प्रक्रिया अनाथी तद्दन जुदी ज छे. क्रमशः जोई तो -
. प्रभाकर गुरु - नैयायिक मते जेम ईश्वरज्ञान स्वप्रकाशक होय छे, तेम आ मते सर्व ज्ञान स्वप्रकाशक ज होय छे. माटे सर्व ज्ञान स्वसंवेदनथी गृहीत थाय छे. सघळांये प्रत्यक्षमा मिति (-ज्ञान- स्वस्वरूप), मेय (-विषयभूत बाह्य पदार्थ) अने मातृ (-प्रमाता व्यक्ति) - ओ त्रणेनुं प्रत्यक्ष थाय छे. माटे ते त्रिपुटीप्रत्यक्षवादी तरीके ओळखाय छे.१ मतलब के बधां प्रत्यक्षो व्यवसाय अने अनुव्यवसाय उभयात्मक होय छे. दा.त. 'घटत्वेन घटमहं जानामि' (घटत्वधर्मथी युक्त घडाने हुं जाणुं छु). आ ज्ञानमा जे स्वप्रकाशनुं सामर्थ्य छे तेना बळे ते स्वस्वरूपनी जेम स्वनिष्ठ प्रामाण्यनो पण बोध करी शके छे.२ तेथी ज्ञान, स्वसंवेदन थाय अनी साथे तेना प्रामाण्य, पण ग्रहण थई ज जाय छे, माटे स्वतःप्रामाण्य छे.
मुरारि मिश्र - आ मते 'आ घट छे' इत्यादि आकारवाळु ज्ञान थाय ओ पछी ओ ज्ञाननुं ग्राहक 'घटत्वधर्मथी युक्त घडाने हुं जाणुं छु' अवा आकारनुं मानस प्रत्यक्ष (-अनुव्यवसाय) जन्मे छे. आ मानस प्रत्यक्ष द्वारा जेम ज्ञान गृहीत थाय छे, तेम ते ज्ञाननिष्ठ प्रामाण्य पण गृहीत थाय ज छे, माटे प्रामाण्यनुं ग्रहण पण स्वत: ज छे. ३ १. "सर्वस्य व्यवसायस्याऽनुव्यवसायात्मकत्वे च ज्ञानस्य मितिमातृमेयविषयकत्वात्
त्रिपुटीप्रत्यक्षतेति प्रवादः ।" - तत्त्वप्रकाशिका - खण्ड ४ २. "तथा च स्वप्रकाशमहिम्ना स्वमिव स्वप्रामाण्यमपि सिद्ध्यति इत्याहुः ।" - न्यायमञ्जरी ४ ३. "मिश्रमते च - 'अयं घटः' इत्याकारकज्ञानानन्तरं 'घटत्वेन घटमहं जानामि' इति
ज्ञानविषयकलौकिकमानसमुत्पद्यते । तेन प्रामाण्यस्य ग्रहणम् ।" - सिद्धान्तचन्द्रोदय:

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