Book Title: Anusandhan 2010 09 SrNo 52
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 69
________________ ५८ अनुसन्धान ५२ ॥सर्व जिन चउतीस अतिसय वीनती॥ म. विनयसागर शत्रुञ्जय मण्डन नाभिसूनु श्री ऋषभदेव की वीनती अपभ्रंश भाषा में की गई है। श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर में इसकी १६वीं शताब्दी की प्रति होने से यह निश्चित है कि यह अपभ्रंश रचना १६वीं शताब्दी के पूर्व की ही है। तीर्थंकर देव के ३४ अतिशय माने गए हैं। जिसमें से चार तो उनके जन्मजात ही होते हैं । दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् कर्मक्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, कर्मक्षय के ११ अतिशय माने जाते हैं और शेष १९ अतिशय केवलज्ञान प्राप्ति के बाद तीर्थंकरों की महिमा करने के लिए देवताओं द्वारा विकुर्वित किए जाते हैं । इन चौतीस अतिशयों की महिमा जैन तीर्थंकरों की महिमा के साथ प्रायःकर सभी स्थलों पर प्राप्त होती है। ____ अतिशय की परिभाषा करते हुए अमरसिंह ने अमरकोश में 'अत्यन्त उत्कर्ष' को अतिशय माना है और आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान चिन्तामणि नाममाला कोश में 'जगतोऽप्यतिशेरते तीर्थकरा एभिरित्यतिशयाः', कहकर व्युत्पत्ति प्रदान की है । हेमचन्द्र ने अभिधान चिन्तामणि नाममाला कोश में वर्गीकरण करते हुए ३४ अतिशयों का वर्णन किया है । वे ३४ अतिशय निम्न हैं :जन्म जात ४ अतिशय १. शरीर - अद्भुत रूप और अद्भुत गन्ध वाला निरोगी एवं प्रस्वेदरहित होता है। २. श्वास - कमल के समान सुगन्धित श्वास होता है। ३. रुधिर-माँस-अविस्र - गाय के दूध के जैसे श्वेत होते हैं और दुर्गन्धरहित होते हैं । ४. आहार-निहार-अदृश्य - आहार और निहार विधि अदृश्य होती है ।

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