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सप्टेम्बर २०१०
आमां जे शाब्दिक के भाषाजन्य फेरफार छे ते तो बन्ने पाठ वांचवाथी ज स्पष्ट थई जाय छे. परन्तु ध्यानमा लेवा जेवो फेरफार तो बीजी कडीनी चोथी पंक्तिनो छे. मूळ वाचनामां कविनी कल्पना मस्त उत्प्रेक्षा करे छे : 'ईख ऊग्गी जाणै थल में" अर्थात् थल एटले रणप्रदेश, तेमां जाणे ईख-इक्षुशेलडी ऊगी होय तेवू, मने, आ भव-रणमां आपनुं दर्शन लाध्युं छे ! केवी उदात्त कल्पना ! अने एनी सामे प्रचलित वाचना जुओ : "आशा पूरो एक पलमें". पूर्व-पंक्ति साथे आनो कोई ज मेळ खातो नथी ! भद्दी लागे छे. पण मागवानी अनादिनी आदत मनुष्यना चित्तमां केवां ऊंडां मूळ घालीने पडेली छे, ते आवा परिवर्तन थकी समजाय छे. बीजूं, कवि आचार्य थया पूर्वे मुनि हता त्यारे आ पद रचेल होवू जोईए. एटले ज 'रंगविजय' एवं नामाचरण छे. पण लोकजीभे 'जिनरंग' एवं आचार्यपदप्राप्ति पछीनुं नामाचरण चडी गर्म्यु छे. अन्तिम कडीना तृतीय चरणमां 'शान्तिजिनेश्वर' एवो प्रचलित पाठ छे तेनी सामे असल अर्थात् कर्ताए लखेलो पाठ 'सुरतरु तूं ही' ए केटलो मजानो छे ! उत्तम रचना पण ज्यारे लौकिक-लोकगीत बने त्यारे क्यारेक, तेनी हालत बहु विचित्र थती होय छे, अने प्रस्तुत पद तेनुं श्रेष्ठ उदाहरण छे.
- शी०