Book Title: Anusandhan 2009 07 SrNo 48
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 54
________________ जून २००९ ४५ द्वितीय कृति सरस्वती स्तोत्र की रचना पद्य १ से ५ मात्रिक सोरठा छन्द में की गई है और पद्य ६ से १४ तक त्रिभंगी छन्द में और १५ वाँ पद्य षट्पदीछन्द में है । त्रिभंगी छन्द का लक्षण - इसमें सात चतुर्मात्रिक होते हैं और अन्त में जगण निषिद्ध है । तृतीय कृति दादा जिनकुशलसूरिजी की स्तुति में प्रारम्भ के ५ पद्य आर्या छन्द में रचित हैं, ६ से १३ तक त्रिभंगी छन्द में और १४ वा कवित्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है । प्रारम्भ के ५ पद्य छोड़कर त्रिभंगी छन्द में निरूपित दादा जिनकुशलसूरिजी छन्द का पूर्व में कई ग्रन्थो में प्रकाशन हुआ है, उसी के अनुसार मैंने भी दादागुरु भजनावली में उन्हीं का अनुकरण किया है, प्रारम्भ के पाँच पद्य उसमें भी नहीं दिए गए हैं। संस्कृत के कवि भी लोक देशों का आश्रय लेकर और प्राकृत के प्रचलित छन्दों में रचना करने में अपना गौरव समझते थे इस दृष्टि से ये तीनों प्रतियाँ श्रेष्ठ हैं । विद्वद्जनो के लिए यह तीनों स्तोत्र प्रस्तुत हैं : ___ श्रीज्ञानतिलकप्रणीतम् गवडीपार्श्वनाथस्तोत्रम् शाश्वतलक्ष्मीवल्लीदेवं, देवा नतपदकमलं रे । मलिनकलुषतुषहरणे वातं, वार्तकरं कृतकुशलं रे ।शा०।।१।। शलभनिभे कर्मणि दावाग्नि, वाग्निजित वद जीवं रे । जीवदयापालितसमविश्वं, विश्वसमयरसक्षीबं रे ।शा०।।२।। क्षीबितगर्वितदुर्जयमोहं, मोहितबहुजनकोकं रे । कोकिलकूजितकलरववाचं, वाचा प्रीणितलोकं रे ।शा०।३।। लोकितसदसन्नानाभावं, भवभयदर्शितपारं रे । परकुमतीनां हतपाखण्डं, खण्डितमारविकारं रे ।शा०।४।। कारं कारं विनयं वन्दे, वन्द्यमहं श्रितनागं रे । नगसुदृढ़ श्रीगौडीपाश्र्वं पार्वेशं जितरागं रे ।शा०||५|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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