Book Title: Anusandhan 2009 07 SrNo 48
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 59
________________ ८ अनुसन्धान ४८ भक्त्या भक्तानां त्वत्सक्तानां त्वद्रक्तानां सुखितमरुं, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छ्रीकारं कुशलगुरुम् ॥८॥ (कवित्वम्) विघ्नद्रुमगजराज ! रुचिरविरुदानां धारय, कलियुगसुरघटतुल्य ! विपुलविद्यानां पारय । विजयहर्षभृतां नृणां विजयवर्द्धनसत्करां, विदधच्चरितदेवं धरणितलजीवाधाराम् ।। जिनचन्द्रसूरिपट्टे स्थितस्तावद् विजयस्व द्रुतम् । यावत् सुराद्रिसूरौ त्वकं 'ज्ञानतिलक' दो विश्रुतम् ॥९॥ C/o. प्राकृत भारती, 13-A, मेन मालवीय नगर जयपुर ३०२०१७ १. ये रचनाएं काफी अशुद्ध लगती है। यदि सम्पादकजीने शुद्ध वाचना के लिए प्रत्यन्तरोंसे मिलान इत्यादि रूप प्रयत्न किया होता तो काफी आनन्द होता । __ - शी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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