Book Title: Anusandhan 2009 07 SrNo 48
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 84
________________ जून २००९ ७५ उपाध्याय रूपचन्द्रगणि और उनके शिष्य श्री बालचन्द्राचार्य हुए । इनका जन्म संवत् १८९२ में हुआ था और दीक्षा १९०२ काशी में श्री जिनमहेन्द्रसूरि के करकमलों से हुई थी । दीक्षा नाम विवेककीर्ति था और श्री जिनमहेन्द्रसूरि के पट्टधर श्री जिनमुक्तिसूरि ने इनको दिङ्मण्डलाचार्य की उपाधि से सुशोभित किया था । ये आगम साहित्य और व्याकरण के धुरन्धर विद्वान थे। काशी के राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द इनके प्रमुख उपासक थे । अन्तिम अवस्था में तीन दिन का अनशन कर वैशाख सुदी ११, विक्रम संवत् १९६२ को इनका स्वर्गवास हुआ था । ऋद्धिसागरोपाध्यायः- महोपाध्याय क्षमाकल्याणजी की परम्परा में धर्मानन्दजी के २ प्रमुख शिष्य हुए- राजसागर और ऋद्धिसागर । इनके सम्बन्ध में कोई विशेष ऐतिह्य जानकारी प्राप्त नहीं है । ये उच्च कोटि के विद्वान् थे, साथ ही चमत्कारी और मन्त्रवादी भी थे । वृद्धजनों के मुख से यह ज्ञात होता है कि दैवीय मन्त्र शक्ति से इन्हें ऐसी विद्या प्राप्त थी कि वे इच्छानुसार आकाशगमन कर सकते थे। विश्व प्रसिद्ध आबू तीर्थ की अंग्रेजो द्वारा आशातना होते देखकर इन्होंने विरोध किया था । राजकीय कार्यवाही (अदालत) में समय-समय पर स्वयं उपस्थित होते थे और अन्त में तीर्थ रक्षा हेतु सरकार से ११ नियम प्रवृत्त करवाकर अपने कार्य में सफल हुए थे, ऐसा खीमेल श्रीसंघ के वृद्धजनों का मन्तव्य है । संवत् १९५२ में इनका स्वर्गवास हुआ था । जैन शास्त्रों और परम्परा के विशिष्ट विद्वान् थे । इन्हीं की परम्परा में इन्हीं के शिष्य गणनायक सुखसागर परम्परा प्रारम्भ हुई जो आज भी शासन सेवा में सक्रिय है। प्रणेताओं का परिचय देने के बाद वादी और प्रतिवादी का परिचय भी देना आवश्यक है अतः वह संक्षिप्त में दिया जा रहा है : वादी-विजयराजेन्द्रसूरिः- इनका जन्म १८८२, भरतपुर में हुआ था। आपके पिता-माता का नाम केसरदेवी ऋषभदास पारख था । इनका जन्म नाम रत्नराज था । यति श्री प्रमोदविजयजी की देशना सुनकर रत्नराज ने हेमविजयजी से यति दीक्षा संवत् १९०४ में स्वीकार की । श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरिजी से शिक्षा ग्रहण की और उनके दफ्तरी बने । १९२४ में आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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