Book Title: Anusandhan 2009 07 SrNo 48
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 76
________________ जून २००९ श्रुतदेवता के निमित्त कायोत्सर्ग किया जाता है 'सुयदेवयाए करेमि काउसग्गं' वस्तुतः वह कायोत्सर्ग भी श्रुतभक्ति का ही एक रूप है और यह ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय का निमित्त भी होता है, क्योंकि जैन सिद्धान्त व्यक्ति के कर्मों का क्षय का हेतु तो स्वयं के भावों को ही मानता है। फिर भी देवों से इस प्रकार की प्रार्थनाएँ जैन ग्रन्थों में अवश्य मिलती है। जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, भगवतीसूत्र की लेखक प्रशस्ति में भी अज्ञानरूपी तिमिर की नाश की प्रार्थना श्रुतदेवता से की गई है। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्धमागधी आगमों में महानिशीथ सूत्र सबसे परवर्ती माना जाता है । इसके सम्बन्ध में मूलभूत अवधारणा यह है कि इसकी एकमात्र दीमकों द्वारा भक्षित प्रति के आधार पर आचार्य हरिभद्र (लगभग आठवीं शती) ने इसका उद्धार किया । चाहे मूल ग्रन्थ किसी भी रूप में रहा हो, किन्तु इसका वर्तमानकालीन स्वरूप तो आचार्य हरिभद्र के काल का है, यद्यपि इसका कुछ अंश प्राचीन हो सकता है, किन्तु कौन सा अंश प्राचीन है और कौन सा परवर्ती है, यह निर्णय पर पाना कठिन है। अर्धमागधी आगमों में यह एक ऐसा ग्रन्थ है जो स्पष्ट रूप से श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) का उल्लेख करता है । इसके प्रारम्भिक अध्ययन में ३ गद्यसूत्रों के पश्चात् ४ से ५० तक गाथाएँ है। उसके पश्चात् पुनः ५१ वां गद्यसूत्र है। उसमें कोष्टबुद्धि आदि ज्ञानियों को नमस्कार करने के पश्चात् 'नमो भगवतीए सुयदेवाए सिज्झउ में सुयाहिया विज्जा' इस रूप में श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) को नमस्कार करके उससे यह प्रार्थना की गई है कि सूत्र अधीत विद्या मुझे सिद्ध हो । पुनः यह भी कहा गया है कि- 'एसा विज्जा सिद्धतिएहिं अक्खरेहि लिखिया एसा य सिद्धतिया लिवी अमुणियसमयसब्भावाणं सुयधरेहिं णं न पनवेज्जा तह य कुसीलाणं च' - यह लिखित विद्या श्रुतधरों को ही प्रज्ञप्त करे कुशीलों को नहीं । पुन: महानिशीथसूत्र के अन्तिम आठवें अध्याय में चौबीस तीर्थंकरों और तीर्थ को नमस्कार करने के पश्चात् 'नमो सुयदेवयाए भगवईए' कहकर श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) को नमस्कार किया गया है। श्रुतदेवता कोई देवता या देवी है, यह बात आगमिक परम्परा में कालान्तर में ही स्वीकृत हुई है, क्योंकि जैसा हमने पूर्व में कहा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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